श्री गुरुदेव कवच

हे गुरुदेव, आप सर्वसमाधिसिद्ध होकर भी साधारण मनुष्य की भाँति लोक - व्यवहार करने वाले, पात्र – अपात्र का भेद न देखते हुए जीवों को अपने संकल्प मात्र से परमगति प्रदान करनेवाले, संसार के लोगों के द्वारा न पहचाने जाने वाले, योगर्षि श्रीकपिल नाम से प्रसिद्ध, अपने अनन्त स्वरुप को शिष्यों से भी छुपाने वाले, आर्तजनों के दुखों को, उनके अपकर्मों के कष्टप्रद भोगों को, अपने संकल्प से दूर कर और उस नारकीय भोग को स्वयं भोगने वाले, आप परमेश्वर को मैं प्रणाम करता हूँ, प्रणाम करता हूँ ।

हे गुरुदेव, समस्त दर्शन, विभिन्न प्रकार से आपके तरफ ही इशारा कर शांत हो जातें हैं और आपके ही विभिन्न रुपों की अलग – अलग प्रकार से व्याख्या कर, सिद्धि प्रदान करतें हैं । उनके द्वारा प्राप्त होने वाले आपके विभिन्न स्वरुपों का ज्ञान और समधियाँ सहज ही आपके चरणों में प्राप्त हो जातें हैं, और फिर भी साधकगण, इन सभी दर्शनों से परे आपके परम स्वरुप को नहीं जान पाते, आपके निकट रह कर भी आपके निकट नहीं पहुंच पाते, और सिर्फ आपकी कृपा मात्र से समस्त बाधाओं को पार कर, आपके उस परम स्वरुप को जान कर समस्त बंधनों से मुक्त हो जातें हैं । हे समस्त बंधनों से मुक्त करनेवाले, अपनी कृपामात्र से जीव और ब्रह्म भाव दोनों का ही क्षणभर में नाश करने वाले, ज्ञानियों के ज्ञान को ही उनके लिए बंधन स्वरुप बना कर अपने परम स्वरुप तक नहीं पहुंचने देने वाले, मंद – मंद मुस्कुरा कर – “मैं बहुत बीमार हूँ और देखिये कितनी औषधियों का सेवन करता हूँ” ऐसा कह कर अपने परमेश्वर, परात्पर स्वरुप को जन सामान्य से छुपाने वाले, मैं सभी प्रकार से आपके ही चरणों का आश्रय लेता हूँ । आप सभी तरह से मेरी रक्षा करें, मेरी रक्षा करें और अपने परम स्वरुप में लय कर लें, लय कर लें ।

हे गुरुदेव, आपके परम कृपा से आपके दिव्यातिदिव्य, अन्धकार और प्रकाश से परे, मन, बुद्धि, प्राण आदि समस्त प्रकृति एवं प्रकृति से परे अक्षय, अभय, अकर्ता, ब्रह्म के दिव्य अहंकार से युक्त पुरुष, इन दोनों ही से परे जो आपका स्वरुप है, जिसे कोई नहीं जानता, जिसे कुछ भी नहीं कहा जा सकता, जहाँ परम शाँति भी शाँत हो जाती है, जिसके बारे में कुछ लिखा नहीं जा सकता, जहाँ प्रकृति से परे वो प्रसिद्ध पुरुष अपने दिव्य अहंकार को त्याग कर लय कर जाता है और फिर कहने – सुनने को कुछ भी शेष नहीं रह जाता, जहाँ समस्त दर्शन, मार्ग, पंथ, धर्म कुछ भी नहीं पहुँच पाते, शिशु के समान तोतला कर अस्पष्ट और अस्फुट, अपूर्ण से हुए बस नेति – नेति का इशारा करते रह जातें हैं, उस परम स्वरुप को मैं दोनों हाथ जोड़े बारम्बार प्रणाम करता हूँ, प्रार्थना करता हूँ । मुझे अपने इसी स्वरुप में लय कर सदैव, सर्वदा के लिए मुक्त करें, मुक्त करें । मैं अपने इसी परम स्वरुप में जग कर आपको हमेशा - हमेशा के लिए प्राप्त हो जाऊँ ।

हे अनंतानंत सूर्यों के सदृश्य धवल ज्योति से प्रकाशित, परम शांत, शान्ति को भी शांत कर देने वाले, हे गुरुदेव, हम जब आपके उपनिषद के शान्ति पाठ को पढते समय धवल ज्योतिर्मय शांत ब्रह्म को नमन कर रक्षण के लिए प्रार्थना करतें हैं, आपके परम कृपा से यह बोध होता है कि, वो धवल ज्योति वाले, निराकार, शांत ब्रह्म आपमें ही लय हैं आप उनसे भी अलग हैं जिसे कोई नहीं जानता। शिष्यों को त्रिताप से रक्षित करने हेतु, समस्त उपद्रवों का शमन करने हेतु, दुखों का समूल विनाश करने के लिए आप से ही उन धवल ज्योतिर्मय शांत ब्रह्म का प्रकाट्य होता है जो समस्त पाप – ताप को शान्त करने वाले हैं । और जैसे पलाण्डु को छीलते जाने पर अंत मे कुछ नहीं बचता वैसे ही आप प्रकाश और अंधकार से सर्वथा परे हैं । मैं आपसे सर्व प्रकार से सदैव रक्षित होऊँ, रक्षित होऊँ । मेरे समस्त पाप – ताप, रोग – व्याधि – शोकादि, क्रूर ग्रहादि प्रकोप, सभी प्रकार के अभिचार कर्मादि, अन्धकार के लोकों एवं पृथ्वी लोक पर उनके अनुयायियों के द्वारा किए जाने वाले आक्रमण, सभी प्रकार के भयादि को सदैव के लिए शांत कर दें, शान्त कर दें ।

हे गुरुदेव, आप विभिन्न यज्ञ, हवन आदि के समय, अपने ही संकल्प शक्ति का विभिन्न रुपों में यजन करवा कर हजारों – हजारों आत्माओं का उद्धार करतें हैं, उन्हें सद्गति प्रदान करतें हैं, निर्वाण देतें हैं, अपने परात्पर, परम स्वरुप में लय कर लेतें हैं। आप अपने हाथों में कुश, तिल, जल आदि लेकर यज्ञ से पूर्व संकल्प लेतें हैं, और आपकी दिव्यातिदिव्य संकल्प शक्ति उसे तत्क्षण पूर्ण करने को उद्यत हो जाती है । आप अपने शिष्यों के आध्यात्मिक उत्थान के लिए संकल्प लेतें हैं, आत्माओं के निर्वाण के लिए संकल्प लेतें हैं, देवताओं के कार्य को पूर्ण करने हेतु संकल्प लेतें हैं, पृथ्वी पर प्रकाश के अवतरण के लिए संकल्प लेतें हैं और वो सारे दिव्य संकल्प तत्क्षण पूर्ण होतें हैं । हे सत्य संकल्प स्वरुप, हे गुरुदेव आप के महान तप, संकल्प और तेज से मैं सभी प्रकार से रक्षित होऊँ, रक्षित होऊँ, निर्वाण पाऊँ, परम गति पाऊँ ।

हे गुरुदेव, हे पिता, हे स्वामी, अन्धकार के जीवों से भरे इस संसार में मुझे अकेला न छोड़ें । कपट, छल, षड्यंत्र आदि तम, रज आदि से भरे और अन्धकारपूर्ण चित्त वाले जीव, अपने अहंकार, दम्भ – दर्प, शक्ति, धन, बाहुबल, बुद्धिबल आदि के मद में चूर, विभिन्न प्रकार से मुझे कष्ट देनेवाले इन जीवों के उपद्रव को, दैहिक, दैविक और भौतिक ताप से, मुझ असहाय, निर्बल और सभी प्रकार से आपके ही चरणों पर आश्रित मुझ दीन – हीन शिष्य की आप सभी प्रकार से रक्षा करें, रक्षा करें । कृपा करें, कृपा करें ।

हे प्रभु, अपने इस शिष्य के साधना को विभिन्न प्रकार के विघ्न, विक्षेप, प्रहार और उपद्रवों से मुक्त कर उसकी भव बाधा को दूर करें, दूर करें । साधना को पूर्ण करें, पूर्ण करें । हे गुरुदेव, त्रिगुण में गोते लगाते हुए, सत – रज – तम के झंझावात सहते हुए, अपने इस शिष्य को आप अपने शरण में लें, शरण में लें । आपने कितने ही जीवों को निर्वाण देकर अपने परम स्वरुप में लय किया है, मुझ अधम को भी अपने स्वरुप में लय कर लें, लय कर लें । हे समभाव और समदृष्टि में स्थित होकर लोक व्यवहार करने वाले, अपनी बेधक कृपादृष्टि से समस्त दुखों का नाश करने वाले, मेरी इस संसार यात्रा को सुगम बनाएँ, सुगम बनाएँ और मेरे इस अनंत और विकट भटकाव को यहीं पर विराम दें, विराम दें । इस मृगमारीचिका और मेरी मृगतृष्णा का अब अंत करें, अंत करें ।

हे शरणागत वत्सल, आप बिना कारण ही मुझ जैसे अपात्र, अधम और बार – बार अपने पथ से भटकने वाले, जलकुम्भी के पुष्प की तरह जिसका कोई उपयोग न हो ऐसे मुझ नराधम को, जो भक्ति, भाव , प्रेम, ज्ञान आदि से सर्वथा रहित है, अपना शिष्य बनाकर, अपने चरणों की धूलि देकर, हे गुरुदेव, मुझ पर ऐसी कृपा की है जिसका वर्णन करना असंभव है । जिस प्रकार हाथी पुन: - पुन: स्नान करके सरोवर से बाहर निकलता है और पुन: अपने आपको धूल – धूसरित कर लेता है, हे प्रभु ठीक उसी प्रकार से मैं भी आपके परम कृपा से, आपके परम स्वरुप के चिन्तन मे लीन होकर भी, पुन: मैं संसार के रसों का पान करने लगता हूँ । हे पतित पावन, मुझ कमजोर और क्षीण संकल्प वाले अपने इस शिष्य को अब तार दें, तार दें । हे तारणहार, भवसागर में गोता लगता मैं, अपने समस्त बल, पराक्रम और ज्ञान – भक्ति आदि से किसी भी प्रकार पार नहीं पा रहा और बोध हो रहा की अब आप ही मेरे मार्ग, मेरी मंजिल, मेरी गति हैं । मेरे पास आपकी ठीक प्रकार से स्तुति करने का कौशल नहीं, व्याकरण आदि का ज्ञान नहीं, और न ही मैं भक्ति, प्रेम, ज्ञान, योग आदि से ही विभूषित हूँ । हे नाथ, अब आप ही मेरी स्तुति, आप ही मेरा व्याकरण, आप ही मेरा प्रेम, आप ही मेरा ज्ञान, और आप ही मेरे योग हैं । हे गुरुदेव, अब आप ही मेरा विश्वास, आप ही मेरे संबल हैं । मेरी समस्त गति, कर्म, विचार, भाव, साधना, मेरा ये अनन्त जीवन, अब आप में ही विश्राम पा रहा । मेरे जन्म जन्मान्तर के समस्त अपराधों को हे करुणार्नव क्षमा कर दें । हे गुरुदेव, अब विलम्ब मत किजिये, अब मुझे अपने अनन्त स्वरुप में सदैव के लिए विश्राम दिजिये ।

श्रीगुरुदेव कवच माहात्म्य :-
माता महाकाली के दिव्य सुनहले प्रकाश से अलोकित वातावरण, और श्रीगुरुदेव के द्वारा तीन गुलाब के पुष्पों को इस कवच पर रख कर सिद्ध और फलित होने के आशिर्वाद से युक्त, योगर्षि श्रीकपिल के दिव्य प्रेम और कृपामृत से सिन्चित, श्री गुरुदेव का यह अमोघ कवच, शिष्यों – श्राद्धालुओं के द्वारा सेवित होकर उनके त्रिताप, क्लेश – उपद्रव, भय, आदि को तत्क्षण नष्ट कर, रोगादि से मुक्ति, उनके साधना, आध्यात्मिक उत्थान में सहायक होकर, मनोवांछित फल प्रदान करने के साथ – साथ, शीघ्र ही परम शुद्धि, परम गति प्राप्त करने में सहायक होगा । योगर्षि श्रीकपिल के परम कृपा, दिव्य प्रेम और उनके द्वारा प्रशस्त दिव्य ज्ञान का रसास्वादन कराते हुए, सभी प्रकार से रक्षा करेगा ।


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