हे बालमुकुंद ! आप ठेहुनियाँ पर रेंग रहे हैं । आपका सम्पूर्ण शरीर धूल से धूसरित है । आपके हाथ, पैर, गले में रत्नजड़ित विभिन्न प्रकार के आभूषण से मनोहर आभा निकल कर मनुष्य, पशु, पंछियों के मन को मोहित कर रही है । आपकी कमर में पीताम्बर सुशोभित हो रहा है । आप अपने दोनों कर से बार - बार आँखे मल कर अपने कपोल और हाथ को काजल से काला किए हुए हैं । आपकी अलकावलि माथे पर घुँघराले बिखरकर आपके मुख, कपोल और आँखों पर फहरा रही हैं । आपकी बड़ी - बड़ी आँखें रक्तरंजित होकर कमल के गौरव को नष्ट कर रही है । आपकी कोमल हथेली की लालिमा और आपके खुले तलुवे की लालिमा आकाश के रक्तिम बादल की छवि को लज्जित कर रही हैं । आपके खुले मुख में दृष्टगत दूध - सी धवल दंतपंक्ति उज्जवल पुष्प के सौरभ को तिरस्कृत कर रही है । आपके ओंठ की लालिमा पंकज की आभा को दुत्कार रही है । दिव्य रत्नों से रचित - खचित आपके कान के आभूषण अतिशय आकर्षक हो योगियों के चित्त को मोहित कर रहे हैं । आपके नाक का आभूषण भी अतिसुंदर है और गले आदि में धारण किए हुए अलौकिक रत्न से रचित आभूषण इन्द्रादि देवताओं के वैभव - ऐश्वर्य को धिक्कार रहे हैं ।
हे बालमुकुंद ! माता के द्वारा लगाया गया आपका सुंदर उबटन योगियों के चित्त को वैसे ही आकर्षित कर रहा है जैसे चंद्रमा चकोर के मन को । हे प्रभु ! आपकी इस छवि को एकटक देखता मैं वैसे ही भाव - विह्वल हो रहा हूँ जैसे स्वाति की दुर्लभ वृष्टिबूँद को पाकर पपीहा अधीर हो जाता है । आपको बार - बार हाथ जोड़ता और प्रेम माँगता मैं नमस्कार कर रहा हूँ ।
आपके कपोल को गुंफित करती मुस्कान तपस्वी के चित्त को हर रही है । क्या आवश्यकता है वैराग्य, ज्ञान, योग या पुण्यादि शास्त्रविहित कर्म की ? आपका प्रेम - वंदित स्वरूप तो मात्रा प्रेम से ही प्राप्त होने वाला है । यह किसी भी शास्त्र के मंत्र, यज्ञ, दान आदि उपासना - विधान से सिद्ध होने वाला नहीं है ।
आपका प्रसिद्ध गोपाल रूप जोकि गोपियों को प्रिय है मधुर भाव का उपास्य हुआ जगजाहिर है । उससे भी अति सूक्ष्म और उपर उठा हुआ वात्सल्य भाव है जो यशोदा - नंद को प्राप्त हुआ अथवा जिसे साधक - साधिकागण प्राप्त करते हैं । यह रूप ना तो गोप - कुमारियों को प्राप्त है और ना ही कारागार में बंद रही देवकी को । यह प्रेम तो मात्रा नंद - यशोदा और उनके ही उम्र की यशोदा की संगिनी तथा नंदजी के मित्रगण में किसी - किसी को प्राप्त हुआ । इस रूप में आप ना तो राधा आदि गोपी के संग और ना ही ग्वालबाल सखा के संग रहते हैं । आपका यह रूप तो अपना दूध पिलानेवाली माता को ही प्राप्त होता है । उन माताओं का वस्त्र हमेशा आपके बदन की धूल से गंदा ही रहता है । साधकजन आपको नमस्कार करते हैं ।
हे घुटने पर रेंगनेवाले बाल - किशोर ! आपको तो खड़े होकर चलना भी नहीं आता है । आप माता - पिता के वस्त्रों को पकड़कर खड़े होते हैं और गिर पड़ते हैं - आपकी आँखों से आँसू टपकने लगते हैं । इस परिस्थिति को देखकर नंद - यशोदा अधीर हो उठते हैं । आपके देह में कभी गोबर तो कभी मिट्टी लगा ही रहता है । आपके मुख से टपकता लार आपके सीने पर धारण किए वस्त्र को हमेशा भिंगोता ही रहता है जिसे माता हमेशा अपने आँचल से साफ करती रहती हैं । आप भूख और प्यास से तुरंत आकुल हुए, देह पर बैठी मक्खियों को उड़ाते हुए यशोदा को देखते ही रोने लगते हैं और यशोदा झट से गोद में उठाकर बार - बार चुंबन लेती आपको स्तन से दूध पिलाने लगती है । आपकी शोभा को देखकर यशोदा - नंद, उनके संगी - साथी सब ठहाका लगाने लगते हैं और अपना सब काम छोड़कर नंद के आँगन में भीड़ लगाये रहते हैं ।
हे प्रभु ! आपकी लीला, क्रीड़ा को देखने के लिए नभमंडल में देवतागण, गंधर्वगण पुष्पवृष्टि करते हुए, कितने ही प्रकार से स्तुति करते हुए देव - धर्म का त्याग कर, जय हो - जय हो, घोष करते रहते हैं ।
आप किसी भी प्रकार के तंत्र - मंत्र - यंत्र, पाठ - स्तुति, भिन्न - भिन्न आगम - निगम में बताये गए विधि - विधान द्वारा प्रसन्न नहीं होते हैं । माता में पाये जाने वाले शुद्ध प्रेम से ही आप प्राप्त होते हैं । आपके संपूर्ण शरीर में मिट्टी लगा हुआ है, हाथ - मुँह में मक्खन लगा हुआ है । आपके ओंठ से मक्खन टपक रहा है और कपोल पर मक्खी भिनभिना रही है । कभी मुँह को झुकाते तो कभी उपर उठाते, इधर - उधर ठेहुनियाँ के बल दौड़ते, विचित्राभाव से ठहाका लगाते आपकी इस मनोहर छवि को मैं प्रणाम करता हूँ । मैं प्रणाम करता हूँ ।
देवता, ॠषि -सिद्ध सभी हाथ जोड़े अति हर्षित मनवाले हुए आपकी जयकार कर रहे हैं । हे प्रभु ! आप कभी तो तेजी से रेंगते हैं और कभी धीरे से जो आपकी थकावट को इंगित कर रहा है ।
हे अबाध्य प्रभु ! सम्पूर्ण विश्व - ब्रह्मांड को अपने अंश मात्र से धारण करने वाले, स्मृति - वंदित आपके इस आश्चर्यमय कौतुक को देखकर आश्चर्यचकित हुए साधकगण आपको बारम्बार नमस्कार कर रहे हैं ।
हे जगदीश ! हे जगन्निवास ! हे विश्वमूर्ते ! हे संपूर्ण दुःखों को हरने वाले हरि ! आपको हम प्रणाम करते हैं ।
हे दीनबंधु ! हे दीनानाथ ! हे पतितपावन देव ! आप हमपर प्रसन्न हों ! प्रसन्न हों ! इस भवसिंधु से उद्धार करें ।
हे आनंदकंद ! हे त्रितापमोचन ! हे मंगल का मंगल करने वाले, हे पवित्र को पवित्र करने वाले परमेश्वर ! हम पर मुदित हों । हम आपको प्रणाम करते हैं ।
जिसका कोई सहारा नहीं, किनारा नहीं है ऐसे निरालंब को अवलंब देने वाले परमात्मा का जो यह बालमुकुंद रूप है उसे हम सब दंडवत प्रणाम करते हैं । आप प्रसन्न हों । प्रसन्न हों ।
मैं किसी भी प्रकार का अर्चन नहीं जानता हूँ । मात्र आँसू से ही आपका यजन करता हूँ । हे जगत्पिता ! प्रसन्न हों । प्रसन्न हों । तीर्थ - व्रत जो उपासना है उससे रहित हुआ इस अकिंचन के पास एकमात्र आँसू ही सहारा है । इस दीन दुखी साधक पर कृपा करें । कृपा करें । एक क्षण के लिए भी जब आप मेरी आँखों से ओझल होते हैं तो ऐसा लगता है जैसे प्राण निकल रहा हो । इस विरह - वेदना को देखते हुए, इस आर्त्त पर कृपा करें । कृपा करें ।
हे दयासिंधु ! हे दीनबंधु ! सब कारणों के कारण । सब आदियों के आदि आप ही हैं । हमारे भय को दूर करें । दूर करें । ग्रहादि प्रकोप से हमारी रक्षा करें । हे भवभयमोचन ! हम बड़ी आस लगाए आपकी शरण में आए हैं । हे शरणागत वत्सल ! हम पर कृपा करें । कृपा करें । उद्धार करें । उद्धार करें ।
हे कारागृह में जन्म लेने वाले ! कारागृह के पट को भंग करनेवाले ! प्रहरी को मोहित कर मूर्छित करनेवाले ! वसुदेव के शीश पर सुशोभित होकर कालिन्दी को चरण - स्पर्श से संतुष्ट करने वाले ! पूतना, केशी आदि असुरों का संहार करनेवाले ! यशोदा के बंधन को अंगीकार करनेवाले ! गंधर्वपुत्र यमलार्जुन को शापमुक्त कर उद्धार करेनवाले ! बालमुकुंद भगवान प्रसन्न हों ।
हम सभी पर कृपा करें और सब प्रकार से रक्षा करें । दसों दिशाएँ आप ही की स्तुति कर रहीं हैं । इस अधम जीव को त्रिताप से मुक्त करें । हे देव ! काम - क्रोधदि चित्त के विकार का हरण करें । हरण करें ।
हे अंतर्यामी ! हे घट - घटवासी ! हे अविनाशी ! हे तारणहार अब विलम्ब ना करें । देवता, गंधर्व, नाग, पितृ, यक्ष, ॠषि - मुनि, सिद्धगण आप ही को सभी दिशाओं से प्रणाम कर पुष्पवृष्टि कर रहे हैं । मैं आपकी चरण - धूलि की आशा में क्रंदन करते हुए अधीर हो रहा हूँ । अब देर न करें । मेरा हृदय प्रेम से हमेशा पल्लवित रहे । हे प्रीतम ! ऐसा ही वर दें, वर दें ।
हे प्रेमेश्वर ! मेरे हृदय में और हृदय से बाहर आप ही केलि करें । हम शरण में आए हुए हैं । हे प्रभु ! आगम - निगम की सारी शाखाएँ आपको अकथनीय, अचिंतनीय, अलेखनीय, मन - वचन से परे वाणी का अविषय कह, सिर झुका कर स्तुति कर रही हैं ।
हे अगोचर ! प्रेमी का प्रेम और ज्ञानियों का ज्ञान आप ही हैं । संपूर्ण मंत्रा - शक्ति, ॐकार - प्रभाव आप ही हैं । हम सब साधक मूक हुए, शीश झुकाकर दंडवत प्रणाम करते हैं । आप पधारें । पधारें । संसार से उद्धार करें । रक्षा करें । रक्षा करें । हम सब नमन करते हैं । आप पुण्यश्लोक, पुण्यनाम, पुण्यधाम हैं । आपको प्रणाम करता हूँ । रक्षा करें । रक्षा करें ।
यह बालमुकुंद - कवच देवी - देवता, सिद्धगण, ॠषि - मुनि द्वारा बार - बार सिद्ध होने का तथास्तु वर प्राप्त है । इनके द्वारा बरसाये गये फूल से वंदित, कर - स्पर्श से रक्षित और ज्ञान - नेत्र से आलोकित हो शक्तिप्राप्त है । जो जिज्ञासु बालमुकुंद भगवान को माखन - मिश्री, धूप - दीप, तुलसी - गंगाजल अर्पित कर उनके इस सिद्ध - कवच का त्रिसंध्या में नित्य पाठ करेंगे उनकी सारी मनोभिलाषाएँ पूरी की जाएँगी ।
हे जिज्ञासुजन ! प्रदोषकाल एवं प्रातःकाल आप सब बालमुकुंद भगवान को प्रेम - सहित फल - फूल - नैवेद्यादि के द्वारा उन्हें प्रसन्न करें और इस कवच के पाठ से संपूर्ण विघ्न - बाधा से मुक्त हो सुख - शांति प्राप्त करें ।