हे देव ! आपके ललाट पर चंद्रमा और शीश पर गंगा सुशोभित हैं । आप जटाजूट विश्वनाथ को हम नमस्कार करते हैं ।
हे प्रभु ! आपके कर्ण में विचित्र रत्नों से रचित आभावाला कुंडल शोभायमान है । आपके एक हस्त में त्रिशूल, दूसरे में डमरू, तीसरे में रुद्राक्ष की माला है और अपने चौथे कर को वर मुद्रा में स्थित कर जगत को अभय प्रदान करते हुए आप ध्यानमग्न अवस्थित हैं ।
हे योगेश्वर ! पद्मासन धारण किए, ध्यान में अवस्थित उदासीन चित्त वाले किंतु प्रसन्न, अर्धखुली दृष्टिवाले इस गंभीर, शांतस्वरूप को मैं सभी दिशाओं से नमन करता हूँ ।
हे त्रिलोचन ! आपका तीसरा नेत्र असुर, राक्षस, पिशाच आदि पापयोनि वालों को भय देनेवाला है । आपके ललाट पर त्रिपुण्ड शोभायमान है । परम धीर, अविचल भाव से स्थित हुए ब्रह्मांड की हरेक गतिविधि पर आँख रखनेवाले आप महेश्वर को मैं प्रणाम करता हूँ ।
हे भुजंगधारी ! आपके संपूर्ण शरीर में भस्म लेपा हुआ है । रुद्राक्ष की माला से सुशोभित, उन्नत वक्षस्थल वाले, कलाई और बाजू में रुद्राक्ष धारण किए हुए, एकांतवासी प्रभु को सिर झुकाकर हम शत - शत प्रणाम करते हैं ।
हे शूलपाणि ! कटि - प्रदेश में मृगछाला धारण किए आपके अलौकिक देह से दिव्य आभा फूट रही है । सफेद पत्थर पर विराजमान, नंदी आदि गणों से पूजित, पार्वती द्वारा सम्मानित, देवता और दानव सभी के उपास्य, अमंगल रूप वाले होकर सकल मंगल देनेवाले आप त्रिलोकीनाथ को हम सभी दंडवत प्रणाम निवेदित कर रहे हैं ।
हे भूतेश ! हे भूतनाथ ! हे प्रेतपाणि ! आप भूत - प्रेतादि द्वारा सेवित, श्मशान में विहार करनेवाले, चिताभस्म से युक्त महाकपालिक हैं । हे महाअघोर ! तंत्र - मंत्र आदि विद्या द्वारा उपासक की मनोभिलाषा को पूर्ण करनेवाले आप सर्वसमर्थ प्रभु को हम नमस्कार करते हैं ।
हे मुण्डमालधरी ! सती के एक सौ आठ टुकड़े किए जाने पर उन सभी टुकड़ों को आपने जो धारण किया है वही मुंडमाल है । यह नाना प्रकार की ॠद्धि - सिद्धि देनेवाला, साधक की अभिलाषा का पूरक है ।
हे नटेश्वर ! सामवेद पर आधारित शास्त्रीय रीति से नृत्य करनेवाले, रागियों के हृदय को आनंदित करने वाले, संगीत विद्या के गुरु ! असंख्य प्रकार के वाद्य, भाव, मुद्रा, रागादि के प्रभु ! नर्तक, संगीतज्ञ, वादक को हर्षित करने वाले आप नटराज को मैं नमन करता हूँ ।
हे दिगम्बर ! यह दिशाएँ आपका वस्त्र तथा दिशाओं के शांत भाव, गगन की छाया, नदी - नाले, पर्वत आदि आपके आवास स्थल, हिंसक जीव - जंतु आपके प्रहरी और त्याग, वैराग्य, उदासीनता आपके भूषण हैं । संन्यासियों एवं योगियों के इष्ट देव को हम सभी मन, कर्म, वचन से प्रणाम करते हैं ।
हे त्रिपुरारि ! आप आकाशमंडल में उठे मायासुर के द्वारा निर्मित सभी ओर से रक्षित उसके पुर को नष्ट करने वाले तथा देवताओं को अभय करने वाले हैं । हे वैद्यनाथ ! आपको मैं नमन करता हूँ ।
हे अनाथ के नाथ ! योगी, प्रेमी, कपालिक - सभी को सिद्धि देनेवाले हे मृत्युंजय ! पापियों के पाप हरने वाले पतित - पावन प्रभु को मैं प्रणाम करता हूँ ।
हे भक्तवत्सल ! भक्तों को मनोवांछित फल देने वाले ! ज्ञानी और योगियों के गुरु ! इन्द्रादि देवताओं द्वारा पूजित ! सभी मंगलों के मंगल ! हे शिवशंकर मैं आपको प्रणाम करता हूँ ।
हे महाकाल ! माँ काली के साथ रमण करने वाले ! ग्रह आदि प्रकोप, ज्वरादि रोग, कुष्ठ आदि व्याधि, भूत - प्रेतादि उपद्रव को क्षय कर आप उपासक को सुख पहुँचाने वाले हैं । हे आशुतोष ! हम सभी आपकी शरण में हैं । हे प्रभु ! आप हमारी रक्षा करें । रक्षा करें ।
हे देवाधिदेव ! अस्त्र, शस्त्र, अग्नि, ज्वर, विष, हिंसक जीव, कुदृष्टि वाले, मारण, मोहन, वशन, स्तम्भन, उच्चाटन आदि वामाचार से होने वाले संकट से हे प्रभु ! आप हमारी रक्षा करें । रक्षा करें ।
हे परमात्मा ! आप निर्गुण, निराकार, निर्लेप, अखंड, अगोचर, शाश्वत, सनातन, दिव्य रूप से मोक्ष देकर मोक्षार्थी को आवागमन से मुक्त करें । मुक्त करें ।
हे सर्वव्यापी ! आप सभी ओर से मुँह, कान, पेट, पीठ वाले नाना प्रकार के वस्त्र - आभूषण धारण किए, असुरों को भयभीत करने वाले, साधुओं के वल्लभ जगत्पिता को हम प्रणाम करते हैं । हे प्रभु ! आप हमारी रक्षा करें ! रक्षा करें ।
हे अखिलेश्वर ! हे परमेश्वर ! हे सर्वेश्वर ! हे देवेश्वर ! हम सभी भयभीत प्राणी आपकी शरण में हैं । हे कृपाशंकर ! निराश्रय को आश्रय देनेवाले ! हे आर्तत्राणपरायण ! हे पतितपावन ! हे दीनबंधु ! हे नाथ मेरी रक्षा करें । रक्षा करें ।
हे चंद्रमौलि ! समुद्र मंथन में उत्पन्न हुआ कालकूट विष - जो देवता और असुर दोनों को ही भय देने वाला है - को हे शिव ! हे दयानिधान ! आप पान कर जगत को भय से मुक्त करते हैं ।
हे चिन्मय मूर्ते ! नाना प्रकार की विद्या, व्याकरण, आगम - निगम, आयुर्वेद, तंत्र, योग, मंत्र आदि गुह्यविद्या, नाना प्रकार की ॠद्धि -सिद्धि, अनेक तरह की जड़ी - बूटी, विविध भाँति के जाति - धर्म, सम्प्रदाय, मत - मतान्तर, सिद्धांत - सूत्र, ॠग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद - इनके गुह्य अर्थ और फल; विभिन्न प्रकार की भाषा-लिपि, भाँति - भाँति के भोजन - वस्त्र - आवास; जलचर, नभचर, भूचर प्राणी एवं उनकी लक्ष - कोटि योनियाँ हे प्रभु ! आप से ही उत्पन्न होते हैं और कल्पांत में आप में ही लय कर जाते हैं ।
सप्तलोक उर्ध्व के एवं सप्तलोक निम्न के रचयिता - इनमें देव, गंधर्व, पितृ, नाग, यक्ष, सिद्धादि को उत्पन्न करने वाले, पालन - पोषण करने वाले, संहार करने वाले ! सृष्टि के विधता, त्रिदेव स्वरूप, प्रलयंकारी देव को हम सभी नतमस्तक हुए बारम्बार प्रणाम करते हैं । हे प्रभु ! हे नाथ ! आप मेरी रक्षा करें ! रक्षा करें ।
हे जिज्ञासु ! श्रद्धासहित शिवजी को आक - धतूरा आदि पुष्प - चंदन - भस्म - गंगाजल, नैवेद्यादि अर्पित कर इस शिव - कवच का नित्य त्रिसंध्या में पाठ करें । इससे आपकी समस्त मनोकामना पूर्त्त होगी और सकल विघ्न - बाधओं का शमन होगा । नारायण, महेश, गणेश आदि देव एवं महाकाली, महालक्ष्मी, महासरस्वती आदि देवियाँ अति हर्षित हो इस शिव - कवच पर पुष्प - वर्षण कर रहे हैं और अपने करकमलों में उठा हस्ताक्षरित करते हुए इसे अमोघ होने का वर प्रदान कर रहे हैं । समस्त देवताओं के आशीष को प्राप्त यह शिव - कवच जगत्प्रसिद्ध हो महिमावंत होगा । इस संदर्भ में यही श्रुति है ।