हे गजानन ! आपके दिव्य स्वरूप जोकि हस्ती के सिर से सुशोभित, लंबे सूँड़ और कान वाला छत्र, मुकुटधरी, त्रिपुंड चंदन से शोभित भाल वाला है को हम प्रणाम करते हैं ।
हे गणेश ! आपके कर्ण में दामिनी सा कुंडल जगमगा रहा है और घुंघराले कुंतल आकाश में लटकते मेघ जैसे मनोहर बन कर बड़े - बड़े लोचन के पार्श्व में लहरा रहे हैं । आपकी ग्रीवा की दिव्य मालाएँ आपके विशाल उदर को छू रही हैं । आपके एक हस्त में कुठार, दूसरे में रूद्राक्ष - माल, तीसरे में लाल पंकज और चौथे में मोदक से भरा पात्र सुशोभित है ।
हे गणनाथ ! आपके पीतवस्त्राधरी, पवित्र यज्ञोपवीत से शोभित, पग में खड़ाऊँधारी, लंबोदर रूप को हम प्रणाम करते हैं जो अपने एक जानु को उठाए हुए और दूसरे जानु को गिराए हुए रत्न खचित सिंहासन पर विराजमान हैं । जिनकी दोनों कलाई, बाजू और पग में मणि, रत्न, धतुजड़ित अलौकिक आभूषण शोभायमान है उस आप बुद्धिवारिधि स्वामी को हम प्रणाम करते हैं ।
हे एकदंतधारी ! हे विज्ञानरूप ! हे मूषकवाहन देव ! हे देह में सुगंधित चंदन का लेपन किए प्रसन्नचित्त गणेश ! आपको हम शत - शत नमस्कार करते हैं जो विद्या, विनय, काव्य, साहित्य, संगीत, कला आदि के उदार दाता हैं ।
हे गजकर्ण ! आप ही ॠद्धि - सिद्धि, आत्मज्ञान, ब्रह्मविद्या, रहस्यमय विद्या, ज्योतिष आदि ज्ञान को देनेवाले हैं । हे शिवपुत्र ! हम आपको नमस्कार करते हैं ।
हे गिरिजानंदन ! देवता, गंधर्व, नाग, पितृ, यक्षादि आपके गण हैं । मातृ - पितृ भक्तों में प्रसिद्ध, प्रथम पूज्य, असुरादि निकंदन सभी के प्रिय, सिद्धों द्वारा सेवित, ॠषि वंदित अग्रपूज्य विनायक को हम नमन करते हैं ।
हे महापंडित, त्रिताप का नाश करनेवाले, नित्य स्मरणीय, मंगलस्वरूप जगत्प्रसिद्ध देव ! हम आपकी चरणवंदना करते हैं ।
हे कुठारहस्त ! असुरों को भय देनेवाले, संतों के प्रिय, त्रिविघ्न का नाश करने वाले, हे गजमुख ! हे गिरिजाकिशोर, हे गिरिजानंदन ! अज्ञानांधकार को हरनेवाले, कुतर्क, कुविचार, संशय, अवसाद, क्षोभ, आत्मग्लानि, घृणा, विभ्रम इत्यादि बुद्धि - दोष का शमन करने वाले ! वामपंथ और दक्षिणपंथ, दोनों के आचार्य द्वारा निवेदित आप मोदकप्रिय को हम नमस्कार करते हैं ।
हे मूषकवाहक ! आप ही विवेक, वैराग्य, ज्ञान, सुविचार, व्याकरण, मेधा, प्रज्ञा, विविध शास्त्रों के ज्ञान, विविध भाषा - लिपि, कर्मों के शुभफल, नाना प्रकार के गुण और प्रतिभा के प्रदाता हैं ।
हे गणपति ! हे शांतचित्त ! हे सुलोचन ! हे सुमुख ! हम सभी उपासक आपको मन - कर्म - वचन से बारम्बार शीश झुकाकर नमन करते हैं ।
हे प्रभु ! दर्शनिक, योगी, ज्ञानी आदि के चित्त में होने वाले विकार - निराशा, किंकर्त्तव्यविमूढ़ता, जड़ता आदि विक्षेप शक्तियों का आप नाश करने वाले हैं । आप उन्नत भालवाले, वृहस्पति आदि देवगुरु से पूजित, दुखमोचक को हम दंडवत प्रणाम करते हैं ।
हे चंद्रमौलि के प्यारे सुत ! शुभ - लाभ, स्वास्तिक, दीपमालिकोत्सव आदि मंगल-कार्य आप को ही प्रथम निवेदित कर प्रारंभ किया जाता है । तांत्रिक, मंत्रज्ञ पुरुष भी आपके ही नाम से अपनी साधना प्रारंभ करते हैं । हे विघ्नहर्ता ! हे विघ्ननाशक ! विपत्ति में घिरे प्राणी की बुद्धि जब कुंठित हो जाती है तब आप ही प्रकाश प्रदान कर उसके लिए शुभ मार्ग का प्रदर्शन करते हैं ।
हे भक्तवत्सल ! हे कृपासिंधु ! दरिद्रतादि दोष को हरनेवाले, ग्रह आदि बाधाओं, नाना प्रकार की विपदाओं, शारीरिक क्लेश आदि दुखों, शोक-संतापों से त्राण देनेवाले आप मोदकप्रिय प्रभु को हम साष्टांग प्रणाम करते हैं ।
हे कपिल ! हे विनायक ! हे गजकर्ण ! हे धूम्रकेतु ! आप अनेक नामों से जगवंदित, विद्यार्थियों और विद्वानों के प्रिय, बिना कारण ही कृपा करनेवाले हैं । आपको हम नमन करते हैं । हे सुखानन ! प्राप्तसिद्धि, विद्या, गुण के रक्षक ! शरण में आए को अभय देनेवाले आप देव को हम दंडवत प्रणाम करते हैं ।
हे प्रभु ! आपका ज्ञानस्वरूप सतरूप जो ध्वल ज्योतिर्मय है, चेतना रूप जो स्वर्णमय प्रकाशवाला है और आनंद - प्रेम रूप जो नील और रक्त आभावाला है, योगियों के मन को बारम्बार विस्मित करनेवाला, अद्भुत, श्रुति - स्मृति - प्रसिद्ध, मोक्षदायक, देवता - गंधर्व - नाग - पितृ - मनुष्य द्वारा सदा ही वंदित, अक्षय, अभय, शांति, परमगति परमपद को देनेवाला है ।
हे प्रभु ! योग में उत्पन्न होनेवाले विक्षेपादि बाधा एवं अन्यान्य क्लेश से हमारी रक्षा करें । रक्षा करें ।
सभी दिशाओं के लोकपाल, शेषादि देवता दिव्य स्तवन द्वारा आपका जयघोष करते हैं । आप रक्षा करें । रक्षा करें ।
अनिष्ट करनेवाले असुरों, राक्षसों, पिशाचों जो बुद्धि में भ्रांति पैदा करते हैं - इन अंधकार के प्राणी से रक्षा करें । रक्षा करें । हे आदिनाथ ! हे सर्वनाथ ! हे पतितोद्धारक ! हे योगियों के ईश्वर ! हे सब प्रकार के मंगलदाता ! हे धन - यश - कीर्ति में वृद्धि करनेवाले ! हे अकाल - मृत्यु के नाशक ! हम सभी उपासक आप से रक्षा की गुहार करते हैं । हे प्रारब्ध - दोष को दूर करने वाले ! हम सभी साधक - उपासक जो भयाक्रांत हैं उनकी रक्षा करें ! रक्षा करें !
हे प्रभु प्रसन्न हों । प्रसन्न हों । कुदृष्टि से, कुवाक्य से, कुप्रहार से हे मंगलस्वरूप ! रक्षा करें ! रक्षा करें !
सकल विघ्नों का नाशक, भय से मुक्ति देनेवाला, अभीष्ट की सिद्धि देने वाला गणेश का यह अतिशय प्रिय सिद्ध - कवच है । धूप - दीप - चंदन - मिष्ठान्नादि नैवेद्य गणेश भगवान को अर्पित कर जो श्रद्धालु इस कवच का त्रिसंध्या में नित्य पाठ करेंगे वे सकल अभिलषित वर की प्राप्ति करेंगे । गजानन से आशीष प्राप्त उनकी सूड़ से उछाले गए और आकाश में विकसित हुए पुष्पों की वृष्टि से ध्न्य देवताओं के कल्याणकारी मंगलवचनों से सिक्त यह कवच अनंतकाल तक गणेश - भक्तों द्वारा सेवित होगा । यही सुमुख वचन है ।