अध्याय 1

श्रीमद्भगवद्गीता महाभारत ग्रंथ का एक संदेश है जो युद्धभूमि के बीच में श्रीकृष्ण और अर्जुन का संवाद है । इसका प्रथम अध्याय अर्जुनविषाद योग के नाम से प्रसिद्ध है । इस अध्याय में प्रथमतः घृतराष्ट्र एवं संजय का संवाद है। घृतराष्ट्र हस्तिनापुर राज्य के अंधे राजा हैं और संजय उनका सारथी जिसे ऋषिकृपा से दिव्य दृष्टि प्राप्त हुई है । गीता के प्रथम श्लोक में धृतराष्ट संजय से पूछते हैं कि हे संजय ! धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में एकत्रित युद्ध की इच्छावाले मेरे और पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया? प्रत्युत्तर में संजय उन्हें कौरव एवं पाण्डव-पक्ष के महारथियों का परिचय कराता हुआ युद्धभूमि में एकत्रित हुई विशाल सेना की गतिविधियों का वर्णन करता है । इसी क्रम में है कि युद्धभूमि के बीचोबिच अपने शत्रुपक्ष में गुरुजनों, पितामह एवं अन्य कुटुम्बियों को देखकर अर्जुन का चित्त विषाद से भर गया है । उसके शस्त्र हाथ से छूटते जा रहे हैं और वह भगवान श्रीकृष्ण से युद्ध की सार्थकता एवं प्रयोजन पर प्रश्नचिह्न लगा अपनी शंका का समाधान चाहता है । प्रथम अध्याय के ४७ श्लोकों में यही प्रकरण है । प्रस्तुत अध्याय के आध्यात्मिक रहस्य को इंगित करते हुए योगर्षि श्रीकपिल कहते हैं - यह संसार कर्मभूमि है। इसमें लोग अपने शुभाशुभ कर्मों का फल भोगते हैं। सज्जन धर्म करते हैं एवं दुर्जन अधर्म । धार्मिक कर्म करने वाले जय को प्राप्त करते हैं तथा अधार्मिक कर्म करनेवाले पराजय को । महाभारत की वह रणभूमि धर्म - अधर्म पर विचार करने के लिए विवश करती है। धर्म के आश्रय से पृथ्वी पर दिव्य चेतना कार्य करती हैं । इनके समर्थक हैं देवता । ये हैं प्रकाश के बने। वहीं अधर्म के आश्रय से अदिव्य चेतना कार्य करती हैं, इसका प्रतिनिधित्व असुर करते हैं जो अंधकार के समर्थक हैं । देवता और दानव सदा मानव पर अपना अधिकार जमाना चाहते हैं । उसे कभी देवता अपनी ओर खींचते हैं तो कभी दानव अपनी ओर । जब मनुष्य के चित्त में सत्य, अहिंसा, क्षमा, दया, प्रेम, सहानुभूति, विवेक, वैराग्य आदि सात्त्विक वृत्तियाँ प्रकट होती हैं तो उसे अपने-आपको देवता के प्रभाव में मानना चाहिए वहीं असुर चित्त को भोग में लगाकर काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह, ईर्ष्या आदि वृत्तियाँ उत्पन्न करते हैं । जीव की भावात्मिका,विचारात्मिका एवं क्रियात्मिका कोशिका पर या तो देवता का आधिपत्य रहता है या दानव का । ऐसा भी होता है कि जीव के चित्त का कुछ भाग देवता के अधिकार में हो और कुछ भाग पर अभी भी दानव अपना साम्राज्य खड़ा किया हो । साधना के द्वारा धीरे -धीरे चित्त के प्रत्येक भाग पर प्रकाश को स्थापित किया जाता है । यही धर्मयुद्ध है । जब हम शनैःशनैः देवता के धर्म को धारण करते है तो अमरणधर्मा हो जाते हैं - मोक्ष, निर्वाण को प्राप्त कर अमरपद के अधिकारी होते हैं वही दानव की वृत्तियों को धारण कर हम मरणधर्मा हो जाते है। हमें बंधन एवं क्लेश प्राप्त होता है। इन्हे ही दूसरे धर्मग्रंथो में शैतान कहा जाता है । शैतान ईश्वरीय विधान का विरोधी है । वह चाहता है कि पृथ्वी पर मनुष्य शोक-मोह से ग्रस्त हुआ स्वार्थ, हिंसा, लोलुपता, कामना, लालसा में डूबा रहे। ये शैतान पाप कर्म में प्रवृत्त करते हैं । इन्हें सात्विक वृत्तिवाले चित्त का सन्तोष, शांति, क्षमा, दया, प्रसन्नता, उपरामता आदि प्रिय नहीं हैं । इन्हें अवसाद, क्षोभ, निराशा, ग्लानि, दुख और विषाद ही प्रिय होता है । ये शांत चित्त में संशय, शंका, कुतर्क, अश्रद्धा उत्पन्न करने को प्रयत्नशील रहते हैं । युद्धभूमि में अर्जुन देवता के पक्ष का वीर योद्धा है जो दुर्योधन के दानव पक्ष से लड़ने को तैयार किया गया है किंतु अपने बंधु-बांधवों एवं गुरु-पितामह आदि को शत्रुपक्ष में देखकर उसे मोह उत्पन्न हो रहा है। उसके मन में शैतान ये भाव उत्पन्न कर रहा है कि तुम इस युद्ध को करके पाप ही करोगे । अर्जुन समष्टिचिंतन को छोड़कर व्यष्टिचिंतन में लीन हो जाता है और उसके चित्त में अवसाद, क्षोभ, निराशा के लक्षण दृष्टिगत होने लगते हैं । इसी भाव दशा में लाने के लिए शैतान प्रयत्नशील रहता है, जब हम सर्वभूतों के हित में स्वार्थ त्याग कर रहे होते हैं तब शैतान हमारे संकल्प को घूमिल करने के लिए हमें स्वार्थ-बुद्धि में लगाकर अवसाद-विषाद से भर देने का प्रयत्न करने लगता है । साधना के समय में ऐसे ही अवसाद के निराशामय क्षणों से मुक्त होने के लिए हमें भगवान श्रीकृष्ण जैसे गुरु की आवश्यकता होती हैं।

© Copyright , Sri Kapil Kanan, All rights reserved | Website with By :Vivek Karn | Sitemap | Privacy-Policy