श्रीमद्भगवद्गीता का द्वितीय अध्याय सांख्ययोग के नाम से कहा गया है । इस अध्याय में कुल ७२ श्लोक हैं । अध्याय के प्रारंभ में हम देखते हैं कि अर्जुन के युद्ध न करने के निर्णय को जब भगवान धिक्कारते हैं और उसे मोह की दुर्बलता को त्यागने की बात कहते हैं तो अर्जुन को शाश्वत धर्म की शिक्षा देने के लिए श्रीभगवान उसे प्रथमतः सांख्यदर्शन का उपदेश करते हैं और उसके बाद पुनः अन्य योग एवं दर्शन का समन्वय करते हैं । अपने उपदेश के प्रारंभ में भगवान अर्जुन से स्पष्टतः कहते है कि “हे अर्जुन ! न तो ऐसा ही है कि मैं किसी काल में नही था, तू नही था अथवा ये राजा लोग नहीं थे और न ही ऐसा है कि इससे आगे हम सब नही रहेंगे'। इसके कारण को स्पष्ट करते हुए योगर्षि श्रीकपिल कहते हैं कि यह संपूर्ण संसार अपने पूर्वजन्म को नही जानता । जीव करोड़ों बार जन्म लेता है । लम्बे तिर्यक योनि का भोग समाप्तकर कभी मनुष्य भी बनता है किंतु फिर भी उसे अपने पिछले जन्मोंकी घटनाएँ याद नही रहती । इसी प्रकार उन्हें अपने अनागत जन्मोंका भी ठीक-ठीक कोई बोध नही रहता । यह रहस्य परमेश्वर के द्वारा ही गोपनीय रखा जाता है । उन्हीं की प्रेरणा से त्रिगुणमयि माया जीव के मन को बहिर्मुख कर विषयों मे रमण कराती रहती है। इसी कारण जीव बार-बार मृत्यु को प्राप्त होते हैं और पुनः जन्म लेते हैं । यदि सभी प्राणी अपने अगले - पिछले जन्मों का रहस्य जान जाय तो उनका सांसरिक जीवन यापन कठिन हो जाएगा । वे सब संन्यासी की तरह वैरागी और उपरत हो जाएंगें किंतु परमेश्वर की इच्छा से यह 'पुनरपिजननं पुनरपि मरणं' का चक्र अबाध चलता रहता है । कोई विरले आध्यात्मिक जन ही इस रहस्य को जानकर इस भव-चक्र से मुक्त होते हैं।
पुनः भगवान आत्मा के अविनाशी, अक्षय, अभय, स्वरूप का वर्णन करते हुए प्रकृति के सर्दी-गर्मी एवं सुख-दुख को सहने हेतु समता, स्थितप्रज्ञता आदि गुणों को धारण करने के लिए अर्जुन को प्रेरित करते हैं । समत्व पर प्रकाश डालते हुए योगर्षि श्रीकपिल कहते हैं कि समत्वको कहने मात्र से कोई समता को नही प्राप्त कर लेता है - यह तो विज्ञान की एक अवस्था है जिसे कोई साधक सत्य, तप, ब्रह्मचर्य, संयम-नियम, तितिक्षा, उपरति, त्याग, वैराग्य - इन दिव्य गुणों को धारणकर ही प्राप्त करता है। यदि एकबार समदृष्टि एवं समभाव सिद्ध हो जाय तो समदृष्टि एवं समभाव ही तीर्थ और व्रत हैं। भगवान के दर्शन के निमित्त जो तीर्थाटन एवं व्रत किए जाते हैं वो वास्तविक रूप से फलीभूत तभी होते हैं जब हमारी दृष्टि, वाणी, हमारा ध्राण, स्पर्श, वाक् सहित हमारा मन संयमित हो, समत्व भाव में हो । यही विज्ञान की अवस्था है जिसमे उठने के लिए गीता हमसे कह रही है । इस अवस्था मे परमात्मा का साक्षात्कार कर जीव की सूक्ष्म आसक्तियाँ भी मिट जाती है । जो इस रहस्य को नही जानते वे सपने के जैसे संसार को ही सत्य मानते हैं।” श्री भगवान अर्जुन से कहते हैं “हे पार्थ । असत् वस्तु की तो सत्ता नही है और सत् का अभाव नही है । अर्थात यह संसार एक ओसबिंदु की तरह है जो सुंदरता में तो हीरे को मात दे किंतु ओसकण से बने हीरे को उठाने के लिए बढ़े हाथ तृण के नोकों पर तो प्यासे ही रह जाते हैं “:
सपने का संसार निराला
भ्रम सत्य सा भाता है
टूटी नींद फिर ज्यों का त्यों
सुख-दुख सब मिट जाता है।
यह जो हमें संसार दीखता है जिसमें पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, नदी, नाला, घर-आँगन आदि दिखाई देते हैं वे वस्तुतः एकमात्र सत् स्वरूप परमेश्वर ही हैं जो सर्व व्याप्त हैं जिनका कही अभाव नही हैं । वे शुद्ध, बुद्ध, चैतन्य स्वरूप अखंड, अछेद्य, अभेद्य हैं लेकिन इनका संसार के रूपों में दिखाई पड़ना ही असत् है जो कि क्षणभंगुर है । इसीलिए भगवान ने कहा है कि सत् का अभाव नही है और असत् की सत्ता नही है।
अर्जुन के भय का कारण अनात्मतत्त्व है । वह अपनी सत्ता और दूसरों की सत्ता को अलग - अलग अनुभूत करता है द्वैताद भयं भवति । यह द्वैत भाव ही बन्धन का कारण है । अद्वैत भाव ही चेतना, सत्, एवं आनंद का कारण है। यही अमरता का भाव है । यद्यपि इस अध्याय का नाम सांख्ययोग है तथापि इसमें श्रीभगवान ने सांख्यदर्शन के समस्त तत्त्वोंका वर्णन नही किया है अपितु वे उस भाव को लक्ष्य कर रहे हैं जिसमे अकर्तापन के बोध से प्रकृति की आसक्ति, तादात्म्य से मुक्त हो आत्मा मुक्तावस्था को प्राप्त करती है। यह आत्मा जब चौबीस तत्त्व को स्वीकार करती है तो बंधन में रहती है, जब इससे मुक्त हो जाती है तो पच्चीसवाँ तत्त्व के रूप में स्वरूप को प्राप्त करती है यही मोक्ष की स्थिति है। आत्मा यदि चौबीस तत्व को अस्वीकार कर दे तो अभोक्ता कहलाती है । यही पुरुष नाम से विख्यात है । कुछ सांख्यवादियों का मत हैं कि यही पुरुष जब विशुद्धतम प्रकृति को स्वीकार करता है तो नियंता, ईश्वर, कर्माध्यक्ष, न्यायकर्ता कहलाता है।