श्रीमद्भगवद्गीता के आठवें अध्याय का नाम अक्षरब्रह्म योग है । इसमे कुल २८ श्लोक हैं । अध्याय के प्रारंभ में ही अर्जुन भगवान से जिज्ञासा करते हैं कि जिसे ब्रह्म कहा जाता है वह कौन है ? अध्यात्म क्या है ? कर्म क्या है ? अधिभूत और अधिदैव क्या है ? अधियज्ञ कौन है और वो इस शरीर में कैसे रहते है? अर्थात इस अध्याय में अर्जुन एक दार्शनिक शिष्य की तरह भगवान के व्यक्त एवं अव्यक्त तत्त्व की परिभाषा जानना चाहता है और उसे यह जानने में अधिक उत्सुकता है कि आखिर अंतकाल में जीव ब्रह्म को कैसे प्राप्त करता है । इसके प्रत्युत्तर मे भगवान अर्जुन को प्रत्येक की परिभाषा देते हुए यह स्पष्ट करते हैं कि जो उन्हे जीवनकाल में सदा स्मरण करता है उसी के द्वारा मृत्युकाल में वो स्मरण आते हैं । भगवान कहते हैं कि ब्रह्म तो अक्षर है । जहाँ आत्मा का वास है वह तो यह शरीर ही है। जिनकी उत्पत्ति और विनाश होता है वह तो अधिभूत है । जिसमें सकल देवता एवं इन्द्रिय का स्थान है वह अधिदैव हिरण्यमय पुरुष हैं। इनके स्वरू प का वर्णन करते हुए योगर्षि श्रीकपिल कहते हैं कि हिरण्यमय पुरुष की आकृति विष्णु भगवान के जैसी है किंतु ये सोने की मूर्ति की तरह भासते हैं । ये मूर्ति की तरह दिखते हैं किंतु ये बोलते भी हैं और चक्र का संधान भी करते हैं । ये सर्वज्ञता को प्राप्त उस परमेश्वर से भिन्न हैं जो अधियज्ञ कहे गये हैं जिनके निमित्त सृष्टि के समस्त कर्म अर्पित होते हैं । परमेश्वर सात लोक मे सात जिह्वा से यज्ञ का हविष ग्रहण करते हैं । ये सात जिह्वा परमेश्वरी के सात रूप हैं - भू लोक में काली, भुवःलोक में कराली, स्वर्लोक मे मनोजवा, महःलोक में सुलोहिता, जनः लोक में सुधुम्रवर्णा, तपः लोक में स्फुरलिंगनी एवं सत्यलोक में विश्वरुची के नाम से प्रसिद्ध हैं।
प्रस्तुत अध्याय में आगे भगवान देवता की दो कोटि का वर्णन करते हैं एक उत्तरायण के देवता और दूसरे दक्षिणायन के देवता । दक्षिणायन के देवता काले रंग के होते हैं और उत्तरायण के देवता उजले रंग के । एक रात के अभिमानी और आवागमन वाले चंन्द्रलोक के देवता हैं तो दूसरे दिन के अभिमानी और आवागमन से मुक्तिवाले सूर्यलोक के देवता । योगर्षि श्रीकपिल कहते हैं कि योगी अपनी साधना में दोनो प्रकार के देवताओंका साक्षात्कार करता है । दक्षिणायन के देवता की उपस्थिति भी साधना-काल में विघ्न-रक्षा हेतु होती है ।
अंतकाल में मनुष्य जिस भाव से भावित रहता है - शरीर छूटने के बाद उसी भाव की अवस्था में रहना पड़ता हैं । यदि कोई जीव भूखा होकर प्राण छोड़ता है तो सूक्ष्मशरीर में भी उसे सदा भूख का अनुभव होता रहता है । यदि मरते समय किसी के मन में रायता खाने की इच्छा रह जाती है तो सूक्ष्मलोक में भी वह बराबर रायता खाने की ही इच्छा करता हैं । किसी मनुष्य का मन मृत्योपरांत तभी सात्त्विक अवस्था में रहता है जब उसका मन जीवन के अधिकांश भाग मे सात्त्विक अवस्था में रहा हो क्योंकि मृत्युकाल में जीव का मन, इन्द्रियों सहित प्राण में लय कर जाता है । यदि मन निम्नगामी रहा तो प्राण शरीर के नीचे से मल-मूत्रादि मार्ग से निकलता है । ऐसी आत्मा नर्कादि तामसिक लोक को प्राप्त करते हैं वहीं जो आध्यात्मिक चेतना वाले पुण्यपरायण जीव हैं उनका प्राण नाक, कान, मुँह, आँख आदि उर्ध्व द्वार से निकलता है और वे सूक्ष्मलोक में स्वर्गादि उर्ध्वलोकों की प्राप्ति करते हैं । भगवान गीता में योगियों के प्राणत्याग की एक और विधि बतलाते हैं जिसमें वो समाधिस्थ हों प्राण को सहस्त्रार केंद्र में स्थित कर मस्तक के शीर्ष द्वार से प्राणत्याग करते हैं । ऐसी मृत्यु आजकल के योगियों की देखने में नही आती है।