गीता के एकादश अध्याय का नाम विश्वरूपदर्शन योग है । इस अध्याय में कुल ५५ श्लोक हैं । जब अर्जुन पूर्व के उपदेशों को ग्रहण कर संशयमुक्त होता है तब भगवान से विराटरूप दिखलाने की प्रार्थना करता है । उसकी भक्ति से प्रसन्न प्रभु उसे दिव्य चक्षु प्रदान करते हैं जिससे भूषित होते ही वह भगवान के अद्भुत, अकल्पनीय, विराट स्वरुप को देखता है। हजारों-लाखों सूर्य के प्रकाश से अधिक चकाचौंध, पृथ्वी, अंतरिक्ष एवं पाताल की सीमा को अतिक्रमण करता भगवान का विश्वरूप जिसमें ब्रह्मा, विष्णु, महेश सहित सकल देवी - देवता, यक्ष, गन्धर्व, असुर-राक्षस एवं मनुष्य आदि सम्पूर्ण योनियों के चराचर प्राणी समाहित हैं । अर्जुन अपने विपक्ष के महारथियों को भी भगवान के दाँत में फंसे हुए वेग से मरते हुए देखता है । पुनः भगवान अर्जुन को आश्वस्त करते हैं कि उसके नहीं मारे जाने पर भी युद्धभूमि के सारे योद्धा मारे जा चुके हैं । इस घटना को स्पष्ट करते हुए योगर्षि श्रीकपिल कहते हैं कि स्थूलजगत में जो अवश्यंभावी घटनाएँ हैं वो पहले सूक्ष्मजगत में घटती हैं । प्रकृति की प्रत्येक घटनाएँ पहले सूक्ष्मजगत में आकार लेती हैं । यहाँ पर जो वातावरण के सर्दी-गर्मी आदि विविध परिवर्तन दिखलाय पड़ते हैं, साथ ही रोग-व्याधि, दुर्घटना या भाग्योदय का अचानक प्राकटय होता है, वे सारी घटनाएँ सूक्ष्मजगत में संपन्न हो जाती है फिर कुछेक दिन, महीने या साल में उसी घटना की स्थूल जगत में पुनरावृत्ति होती है । यदि कोई योगी सूक्ष्मजगत में होने वाले इस परिवर्तन, रोग - आक्रमण या अनहोनी आदि का अनुभव करने में समर्थ हैं तो भगवान का मन जानकर उनका आश्रय लेकर संयम-नियम से उनमें कुछ अनुकूल परिवर्तन भी कर सकते हैं । यौगिक ध्यान में सूक्ष्म शरीर के क्रिया कलाप प्रत्यक्ष होते हैं । कभी - कभी स्वप्न में भी हमें देवता एवं दानव द्वारा शुभ-अशुभ कर्मों की गति दिखलाई जाती है । कुछ शकुनों-अपशकुनों द्वारा भी हमें घटनाओं का पूर्व संकेत प्राप्त होता है।