गीता के पन्द्रहवें अध्याय का नाम पुरुषोत्तम योग है । इसमें कुल बीस श्लोक हैं । प्रस्तुत अध्याय में भगवान इस संसार को ऐसे पेड़ के रूप में बताते हैं जिसकी जड़ ऊपर की ओर है और शाखा, तना, पत्ता आदि नीचे की ओर । तात्पर्य यह कि भगवान तो सबके परम कारण रूप होकर उर्ध्व लोक में विराजते हैं और जीव अधः लोक में । भगवान जीवात्मा के भोक्ता स्वरूप का वर्णन करते हुए कहते हैं कि आँख, कान, त्वचा, जीभ और नासिका के साथ मन को आश्रय करके यह जीवात्मा ही विषयों का सेवन करता है। भगवान गीता में जीवात्मा को कभी तो अकर्ता और अभोक्ता कहते हैं और कभी भोक्ता एवं कर्ता कहते हैं। इसके कारण को स्पष्ट करते हुए योगर्षि श्रीकपिल कहते हैं कि यह आत्मा जब जीवभाव से संयुक्त होता है, उसमें जीवत्व का अहंकार रहता है तो यह भोक्ता एवं कर्ता के रूप में स्थित रहता है। किंतु जिस क्षण यह आत्मा इन्द्रिय, मन, बुद्धि आदि से अपने तादात्म्य को वापस ले लेता है वह अभोक्ता और अकर्ता के रूप में प्रतिष्ठित हो जाता है। सिर्फ भगवान ही दोनो अवस्थाओं में एक ही समय रह सकते हैं । वह इन्द्रियों, मन, बुद्धि आदि से तदात्म हुए बिना भी भोक्ता हो सकते हैं और तदात्म होकर भी अकर्ता हो सकते हैं । इसलिए वो पुरुषोत्तम हैं - सबके परमेश्वर । वही अनुग्रह और अनुशासन के परमनिधान हैं । भगवान इस संसार को अपने अंशमात्र में धारण कर यहाँ के जड़ एवं चेतन दोनो तत्त्व से अतीत अपने, महिमा, तेज, बल, विभूति में आश्चर्यमय, सर्वथा अलग और अद्वितीय हैं। इसलिए वो पुरुषोत्तम कहे गये हैं।