श्रीमद्भगवद्गीता के छठे अध्याय का नाम आत्मसंयम योग है । इसमें कुल ४७ श्लोक हैं । अध्याय के प्रारंभ में श्रीभगवान अपने पूर्वकथन की पुष्टि करते हुए पुनः स्पष्ट करते हैं कि योगी या संन्यासी वही है जो निष्काम कर्म कर कर्तव्यनिर्वाह करता है न कि मात्र वे जो संन्यास के नाम पर परिवार, धन, पद का त्याग करते हैं या योग के नाम पर किसी संप्रदाय, मत विशेष से दीक्षित होकर अपने कुलधर्म, देवयज्ञ, पितृयज्ञ या ऋषियज्ञादि के प्रति कर्तव्यनिर्वाह नहीं करते हैं । चाहे कोई योगी हो या संन्यासी उसे इन्द्रियों के भोगों से अनासक्त होकर रजोगुण-तमोगुण के समस्त संकल्पो से मुक्त होना ही होगा अतः तात्त्विक रूप से दोनो में अंतर नही है । योग के गूढ़ मर्म को प्रकाशित करते हुए भगवान अर्जुन से मन को निरुद्ध करने का उपदेश देते हैं जिसे अर्जुन हवा को बाँधने जैसा ही दुष्कर मानता है किंतु भगवान कहते हैं कि वैराग्य और अभ्यास से जब उसका रजोगुण शान्त हो जायेगा और पापों की शुद्धि हो जाएगी तो यह योग साधना सुगम प्रतीत होने लगेगी । अर्जुन फिर इस शंका से ग्रस्त हो जाता है कि यदि वह किन्ही कारणों से योगग्रष्ट हो गया तो उसकी क्या गति होगी। फिर उसे भगवान आश्वस्त करते हैं कि योग से विचलित हुए योगी अगले जन्म में पुनः योगारुढ़ हो जाते हैं किंतु फिर भी इस जन्म में उनकी क्या गति होती है यह प्रश्न गीता मे अनुत्तरित है । योगारुढ एवं योगभ्रष्ट अवस्था की विशेषता बतलाते हुए योगर्षि श्रीकपिल कहते हैं कि योगारुढ़ व्यक्ति सांसारिक इच्छा-कामना से मुक्त होता है। उसमें धन, पद, पैसा, पुत्र, पुत्री आदि की स्पृहा नही होती है।
वह गणमान्य व्यक्तियों की भीड़ में भी रुचि नहीं रखता । उसका मन अंतर्मुख होता है। वह सदा शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि से पृथक अपने अकर्ता आत्मा के भाव का संकल्प लेता रहता है । खाने-पीने, उठने-बैठने आदि सभी क्रियाओं से अपने आत्मा को पृथक देखने वाला तथा वैसी ही धारणा करने वाला होता है । उसको अपनी आत्मा के अक्षय, अभय स्वरूप का बोध रहता है । ध्यान करते ही उसकी कुंडलिनी शक्ति जग जाती है । वह स्थूल शरीर से मुक्त होकर सूक्ष्म शरीर से सूक्ष्म लोकों में विचरण करने वाला होता है । उसे हृदय पुरुष के संकेत प्राप्त होते रहते हैं । वह उनका साक्षात्कार करता है । अपने मार्ग के अनुरूप उसे आध्यात्मिक अनुभूति होती रहती है - तत्त्व साक्षात्कार होता रहता है । वह ब्रह्म को पृथ्वी, आकाश, सूर्य, चंद्र, तारा, पर्वत, वृष्टि, नदी, समुद्र आदि रूपों में अनुभव करता है । पशु-पंछी के रूप में दिव्य विभूतियों का साक्षात्कार होता है। ब्रह्म का प्रकाश - नीला, लाल, पीला, गुलाबी, सुनहला, हरा, आदि रंगो में दिखलाई पड़ता हैं । ये अलग-अलग देवी-देवता का प्रतिनिधित्व करते हैं । योगारुढ़ अवस्था में शरीर, मन, प्राण, बुद्धि आदि स्वस्थ अवस्था में रहते हैं । हृदय के अन्तर में इतने तेज का अनुभव होता है कि बाहरी सूर्य दीप सा टिमटिमाता नजर आता है। किंतु यदि किसी कारण से योगी पथच्चुत होता है तो वह शारीरिक, मानसिक कष्टों से घिर जाता है । शरीर में रोग एवं अवसाद, चिन्ता, क्षोभ, अनिद्रा, बेचैनी, घबराहट आदि के लक्षण आने लगते हैं । उसका आध्यात्मिक सुरक्षा-कवच टूट जाता है जिस कारण उसे सूक्ष्म जगत की शैतानी आत्मा तंग करने लगती है । योगारुढ़ अवस्था में अंधकार की जो तामसिक शक्तियाँ पहले उससे डरकर दूर भागती रहती थी वह अब उस को आसानी से यौगिक क्लेश प्रदान करने लगती है । जब रजोगुण-तमोगुण का भोग समाप्त होता है और पूर्वके समस्त पापों की शुद्धि हो जाती है तब योगभ्रष्टी का क्लेश कम होता है । मृत्योपरांत वे नर्क को प्राप्त नही करते हैं । जिस चक्र तक उनकी कुंडलिनी जगी रहती है और जिस तत्त्व की उनकी शुद्धि - सिद्धि सम्पन्न हुई रहती है उस तत्व के लोक को वे प्राप्त करते हैं । यदि पुण्य का भोग शेष रहा तो वे सूक्ष्मलोक में विशाल अवधि तक पुण्य का स्वर्गीय सुख भोगकर पुनः पृथ्वी पर भी धन-धान्य से संपन्न कुल में जन्म लेते हैं और पुनः भगवान की इच्छा से प्रेरित हो अंत के जन्म में योगाभ्यास की पूर्णता प्राप्त करते हैं।
कुछ योगी जो निर्वाण की देहली तक पहुँचकर कतिपय कारणवश योगच्युत होते हैं वो अत्यल्प भोग के कारण कुछ ही समय के लिए सूक्ष्मलोक में रहते हैं और पुनः उनका जन्म किसी योगी कुल में हो जाता है जहाँ स्वभाववश साधना परायण हो वो पूर्णता को प्राप्त करते है । भगवान ऐसी गति को दुर्लभ बताते हैं।