श्रीमद्भगवद्गीता के सप्तम अध्याय का नाम ज्ञानविज्ञान योग है । इसमें कुल तीस श्लोक हैं । अध्याय के नामानुरूप ही इसमें भगवान के विशेष ज्ञान प्राप्ति का रहस्य छिपा है । इस अध्याय के प्रारंभ में ही श्रीभगवान अर्जुन से उस विधि को कहने का वचन देते हैं जिस विधि से वह भगवान को पूर्णतयाजान लेगा । भगवान को पूर्णतयाजानना अति दुःसाध्य कार्य है जिसके बारे में स्वयं भगवान कहते हैं कि हजारों मनुष्यों में कोई एक उनकी प्राप्ति के लिए यत्न करता है और उन यत्न करनेवाले योगियों में भी कोई एक उनके परायण होकर प्रभु को तत्वतः जानता है। इस रहस्य को स्पष्ट करते हुए योगर्षि श्रीकपिल कहते है कि भगवान को खोजने वाले हजारों-लाखों लोगो में कोई विरले ही अपने चित्त के तमोगुण एवं रजोगुण से निवृत्त हो पाते हैं । वे अपने स्वभाव-संस्कार को छोड़ने के लिए दृढनिश्चयी नहीं होते हैं । अपनी साधना के प्रति गंभीर नहीं होते । वे तीर्थदर्शन, गंगास्नान या कुछ पूजा-पाठ मात्र से ही अपने अध्यात्मिक कर्तव्यों की इतिश्री मान लेते हैं । कुछ साधक अपनी कामनापूर्ति होने के लिए ही भगवान की भक्ति करते हैं । कुछ साधक गंभीर संकट से मुक्ति के लिए भगवान का आश्रय लेते हैं किंतु संकट टलने पर भगवान के प्रति उनकी पुकार शिथिल हो जाती है । कोई विरला साधक जो दृढनिश्चयी, संयमी, कामना, लालसा से रहित होता है वो भगवान को एकात्मा, विश्वात्मा, केवलात्मा के रूप में जान पाता है । वह तपस्या, त्याग एवं वैराग्य के मर्म को जाननेवाला होता है । ऐसे भक्त जो उन्हें तत्त्वतः जानता है उन्हे भगवान ज्ञानी भक्त कहते हैं । ये अत्यंत दुर्लभ होते हैं।
अन्य जो साधकगण हैं वे अपने गुणों से बद्ध हुए भगवान को देखने में, समझने में असमर्थ रहते हैं । यह त्रिगुण ही माया है जिससे आच्छादित हुआ जीव भगवान को नही देख पाता । इसे स्वयं भगवान अति दुष्कर बताते है । किंतु भगवान की प्रकृति दो प्रकार की है एक अपरा एवं दूसरी परा । परा प्रकृति तो सच्चिदानंदमयि, अमृतमयि है वह जीव पर कृपा कर उसे खोलती है, उसके जन्मान्तर के पाप नष्टकर उसे मोक्ष, निर्वाण देती है । माया एवं महामाया के इस मर्म को नही जाननेवाले ही महः,जनः,तपः एवं सत्य लोक की अधिष्ठात्री महासरस्वती, महालक्ष्मी, महाकाली एवं महेश्वरी आदि जगदम्बा को भी माया कहते है । सूक्ष्मजगत में भगवान के रूप का स्वांग निम्न लोकों की आत्माएँ भी करती है । अतः भगवान के स्वरूप का ठीक-ठीक साक्षात्कार करना एवं उनका मर्म जानना अति कठिन है। तभी तो श्रीभगवान कहते हैं कि पृथ्वी पर उनके मर्म को नही जानने वाले उन्हे न कहने योग्य वचन कहते हैं । अज्ञानी जन उन्हे अपने ही समान जन्म-मृत्यु लेने वाला, कर्म प्रारब्ध में बँधा हुआ साधारण प्राणी समझते हैं। किंतु भगवान की महिमा देखिए- उन्हीं के तेज, बल, विभूति, प्राण से यह जगत तेजवंत, बलवान, विभूतिवान एवं प्राणवंत बना है किंतु वो अपने उज्जवल, उर्ध्वधाम में निवास करने वाले अपने स्वरूप मे इतने विलक्षण और महान हैं कि उनमे और इस जगत में कोई तुलना ही नही हो सकती - वो इनसे अत्यंत परे हैं।