गीता के चतुर्थ अध्याय का नाम ज्ञानकर्म संन्यास योग है । इसमें ४२ श्लोक हैं । अध्याय के नामानुरूप इसमें पुनः विस्तार से ज्ञान, कर्म एवं संन्यास तत्त्व की व्याख्या की गई है । चतुर्थ अध्याय के प्रारंभ में श्रीभगवान अर्जुन से कहते हैं कि ज्ञान और कर्म के जो योग वे आज उसे समझा रहे हैं वही योग उन्होने पहले कभी सूर्य को दिया था, सूर्य ने उस ज्ञान को अपने पुत्र इक्ष्वाकु से कहा। इस प्रकार कभी राजर्षियों की परम्परा में प्रचलित यह योग आज लुप्त हो गया। अर्जुन पुनः आश्चर्य व्यक्त करते हुए पूछता है कि सूर्य का जन्म तो कल्प के प्रारंभ में हुआ तब तक करोड़ो वर्ष बीत गए और भगवान का जन्म तो हाल में हुआ फिर यह योग-दीक्षा कैसे संभव है ? प्रत्युत्तर में भगवान उससे पुनः अपनी शाश्वतता को इंगित करते हुए अपने दिव्य जन्म एवं कर्म के बारे में बताते हैं । भगवान के अवतारी शरीर की विशिष्टताओं पर प्रकाश डालते हुए योगर्षि श्रीकपिल कहते है “जिस प्रकार जीव का शरीर और उसका जन्म-मरण होता है वैसा भगवान का नहीं होता । जीव के लिंग शरीर में उसके शुभाशुभ कर्म के भोग रखे रहते हैं । इसी लिंग शरीर के कारण उसे अलग - अलग योनियों में जन्म लेना पड़ता है वहीं भगवान का शरीर चिन्मय होता है । वे अपनी इच्छा व संकल्प से जन्म लेते हैं । उनके लिंग शरीर या कारण आदि शरीर नही होते । वे गर्भ से भी प्रकट हो सकते हैं और बिना माता - पिता के भी जन्म ग्रहण कर सकते हैं । इसी प्रकार जब जीव का प्राण छूटता है तो उसके सूक्ष्मदेह में उसकी सूक्ष्म तन्मात्राएँ, इन्द्रिय, मन, बुद्धि, चित्त एवं अहं लय करते हैं ।
चित्त के गुणानुसार उसकी अलग-अलग लोक में गति होती है। वहीं जब भगवान अपने स्थूल शरीर का त्याग करते हैं तो सीधे-सीधे उनकी आत्मा जगत के सर्वभूत में लय कर जाती है। उन्हें किसी लोक को आना-जाना नही पड़ता है। भगवान जगत का कल्याण करने के लिए अलग-अलग देश, काल में अलग-अलग साधना-पद्धति एवं संप्रदाय को उतारते हैं । बहुत से ऐसे सिद्धान्त के सूत्र, मत एवं दर्शन हैं जो सदा ब्रह्मलोक में ही रहते हैं - उनका कभी पृथ्वी पर आगमन नही होता । कुछ ही ऐसे सूत्र-सिद्धान्त हैं जो अवतार या अन्य ऋषि मुनि द्वारा पृथ्वी पर उतारे जाते है। लाखों-करोड़ो वर्ष में उन मत-सम्प्रदाय में भी विकृति उत्पन्न हो जाती है । पुनः ब्रह्मलोक से नये धर्म का सूत्रपात किया जाता है।"
प्रस्तुत अध्याय में भगवान ने यज्ञ अर्थात साधना की कई पद्धतियों का विवरण दिया है जिसे शरीर, इन्द्रिय एवं मन के आश्रय से करना है । अष्टांग योग, जप, देवयज्ञ, पूजन-अनुष्ठान आदि को भगवान यज्ञ कर्म कहते हैं जिसे कर्त्तव्य कहा है पुनः सभी कर्मो की शुद्धि ज्ञान के द्वारा होना ही बताते है । इससे यह स्पष्ट हो गया कि प्रभु हमसे ज्ञानमय यज्ञ की अपेक्षा करते हैं । निर्मल चरित्र ही हमारे यज्ञ का आधार है । यही इष्ट और उपासना है। इसी से हमें समत्व का, एकत्व का ज्ञान प्राप्त होता है।