श्रीमद्भगवद्गीता के पंचम अध्याय का नाम कर्मसन्यास योग है जिसमे कुल २९ श्लोक हैं । अर्जुन इस अध्याय के आरंभ में पुनः वही जिज्ञासा करता है जो पहले से करता आरहा है कि आखिर मार्ग कौन सा उत्तम है-कर्मों से पूरा का पूरा संन्यास ले लेना या कर्म करते हुए कर्मयोग का आचरण करना । प्रत्युत्तर में भगवान उसे फिर समझाते हैं कि ये दोनो मार्ग परम कल्याण के हैं परंतु लोक जीवन-निर्वाह में चूँकि कर्म का सम्पूर्ण त्याग सम्भव नहीं है इसलिए कर्मयोग का आचरण ही श्रेष्ठ है तथापि इसका मतलब ये नहीं कि कर्मयोग विना ममता, आसक्ति के त्याग से संभव है । कर्मयोगी को ऐसे कर्मो का तो त्याग करना ही है जो विषय-वासना से परिचालित है, जिनमें क्षणिक इन्द्रिय-तुष्टि है, आत्मा का आध्यात्मिक आनंद नहीं । इसलिए भगवान स्पष्ट कहते हैं कि इस प्रकार कर्म संन्यास एवं कर्मयोग को अलग-अलग मानने वाले मूर्ख लोग हैं । ज्ञानी जानते हैं कि दोनों ही मार्गों में चित्त को शुद्ध रखना, कर्मफल के प्रति अनासक्त रहना और सर्वभूतों के हित में रहना अनिवार्य हैं । अध्याय के अन्त में भगवान साधना करने की विधि बतलाते है जिससे हमें ईश्वर-साक्षात्कार हो सके । इसके लिए वो आसन, प्राणायाम, त्राटक, ध्यान आदि का वर्णन करते हैं । इस साधना पद्धति पर प्रकाश डालते हुए योगर्षि श्रीकपिल कहते हैं कि ध्यान करने से पूर्व शरीर एवं मन को शांत करने के लिए साधक पद्मासन या सुखासन जैसे किसी आसन में बैठकर गायत्री, सावित्री आदि मंत्र का जप करें । पुनः प्राणायाम करे । प्राणायाम में पूरक-रेचक-कुंभक कमशः २१-२१ बार दोनों नासिका से करे।
अर्थात एक क्रम में पहले दाहिने नासिका से यदि साँस भर लिया तो बायी नासिका से साँस छोड़ दे पुनः दोनो नासिका बन्द कर कुंभक करे । पुनः दाहिनी नासिका से साँस भरकर फिर वही क्रम २१ बार दोहराये । फिर बायी नासिका से साँस भरकर दाहिने नासिका से छोड़े और कुंभक करें । यह क्रम भी उतनी ही बार करे । अभ्यास से प्राणायाम की अवधि क्रमशःबढ़ा सकते है। प्राणायाम करने से प्राण शुद्ध और शान्त होता है । धीरे-धीरे साँस की गति मन्द और सम होती है । इस अवस्था में मन भी शान्त होता है । प्राणायाम के बाद त्राटक करना चाहिए। गीता में भगवान नासिका के अग्र भाग पर त्राटक करने के लिए कहते हैं । यह सबके लिए सहज नहीं होता है । कई लोग दीपक की निष्कंप लौ आदि प्रकाशमान ध्येय पर भी दृष्टि एकाग्र करते हैं किंतु तारा पर त्राटक करना उत्तम है। इसके लिए शवासन में लेटना चाहिए। प्रारम्भ में जब तारा पर दृष्टि एकाग्र करते हैं तो ऐसा लगता है कि तारा हिल रहा है किंतु वास्तव में हमारा मन ही हिलता रहता है । धीरे-धीरे जब मन अचंचल होता है तो तारा स्थिर प्रतीत होने लगता है फिर जब त्राटक की सिद्धि होती है तो आकाश स्थित तारा धीरे-धीरे अपने भृकुटिमध्य में आकर लीन होता है । जो तारा पहले आकाश में दिखता है वही तारा अब भृकुटि मध्य में दिखता है जो उठता हुआ क्रमशः सहस्त्रार केन्द्र में स्थापित होता है । अब अन्तर त्राटक करें । अर्थात जिसे बाहर देखते थे उसे ही अन्तर में देखें । यही ध्यान है । ध्येय पर एकाग्र होते ही कुंडलिनी शक्ति जगती है। अपने ही शरीर में मूलाधार चक्र पर सर्प के रूप में कुंडलिनी शक्ति सोयी रहती है । जब यह जगती है तो साँप की प्रूफकारने की आवाज ध्यान में सुनाई पड़ती है। जैसे पानी हाहाते हुए आता है वैसी आवाज भी अनुभव में आती है।
शक्ति ऐसे बढ़ती है जैसे गेंद एक सीढ़ी से दूसरी सीढ़ी पर उछलती है या मेंढक उछलता है या बंदर एक डाल से दूसरी डाल पर फुदकता है। कुंडलिनी के चक्र भेदन के साथ ही चेतना ऊपर उठती चली जाती है । सहस्त्रार केन्द्र में स्थित हो साधक समाधि प्राप्त करता है।