अध्याय 13

गीता के तेरहवें अध्याय का नाम क्षेत्रक्षेत्रज्ञ विभाग योग है । इसमें कुल ३४ श्लोक हैं । सम्पूर्ण अध्याय में मात्र भगवान की वाणी है जो इस शरीर रुपी क्षेत्र एवं आत्मा रुपी क्षेत्रज्ञ के रहस्य को विस्तार से समझाते हैं । श्रीभगवान अर्जुन से कहते हैं कि पाँच महाभूत, अहंकार, बुद्धि, मूल प्रकृति, कर्मेन्द्रियाँ, ज्ञानेंद्रियाँ, मन एवं इन्द्रियों के पाँच विषय तथा इच्छा, सुख-दुख, स्थूल देह का पिण्ड, चेतना और घृति - ये विकारों के संग क्षेत्र हैं और इसके विकारी, अनित्य, क्षणभंगुर, दुख रुपी दोष से आवृत स्वरूप को जानना ज्ञान हैं और वे परब्रह्म ही क्षेत्रज्ञ हैं जो सब ओर हाथ-पैर, मुख, सिर और नेत्रवाले हैं, वही समभाव से चराचर भूतों में स्थित हैं । इस क्षेत्रज्ञ की चेतना में वही जगते हैं जो सभी प्राणियों से सम व्यवहार करते हैं । समदृष्टि की महत्ता को दर्शाते हुए योगर्षि श्रीकपिल कहते हैं कि समदृष्टि एवं समभाव यदि मात्र वाणी का विषय न हो अपितु अंतःकरण से सिद्ध हो तो वह आत्मज्ञान का प्रकाशक है । जब मनुष्य सुख-दुख, मान-अपमान, जय-पराजय में भी अपने आध्यात्मिक स्वरूप से विचलित नही होता और अपने ही सुख-दुख जैसे दूसरों के सुख-दुख को अनुभव करता है तो वह समभाव में स्थित होता है । समभाव की सिद्धि निर्मल चरित्र के सुदीर्घ अभ्यास से ही संभव है । जब तक चित्त से काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर आदि विकार नष्ट नही होता, वह दैवी संपदा के गुणों से विभूषित नहीं होता तब तक उसमें समदृष्टि एवं समभाव का उदय नहीं होता है। समदृष्टि की सिद्धि होते ही जीव की तृष्णा का अभिमान और हिंसा आदिवृत्ति का नाश हो जाता है और सर्वभूत में व्याप्त ईश्वर की वह अनुभूति करने लगता है। इसलिए जैसे मनुष्य तीर्थस्थानों या व्रत-पर्वो, अनुष्ठान में ईश्वर को ढूंढते हैं वैसे ही ज्ञानियों के द्वारा समदृष्टि एवं समभाव में अपने इष्ट को ढूँढा जाता है, तीर्थ और व्रत के फल प्राप्त किए जाते हैं। श्रीभगवान कहते हैं कि जो साधक समभाव में स्थित हो चराचर भूत में ईश्वर-साक्षात्कार करता है वही परमगति को प्राप्त करता है - वही अपने द्वारा अपने को नष्ट होने से बचाता है।

© Copyright , Sri Kapil Kanan, All rights reserved | Website with By :Vivek Karn | Sitemap | Privacy-Policy