गीता के चौदहवें अध्याय का नाम गुणत्रय विभागयोग है । इसमें कुल २७ श्लोक हैं । इस अध्याय में मुख्यतया तीनों गुण-सत्त्व, रज एवं तम के लक्षण, फल, प्रवृति एवं निवृति का वर्णन है । अध्याय के प्रारंभ में ही भगवान अर्जुन से कहते हैं कि वो उस अतिरहस्य युक्त ज्ञान को अर्जुन से पुनः कहेंगे जिसके द्वारा वह प्रकृति एवं पुरुष को तत्त्वतः जान लेगा। सकल सृष्टि में महत् ही अर्थात मूल प्रकृति ही सृष्टि उत्पन्न करनेवाली माता है और स्वयं भगवान पिता हैं। यह प्रकृति गुणमयि है। सतोगुण, रजोगुण एवं तणोगुण के मेल से चित्त सहित इस अपरा जगत की सृष्टि हुई है । इनसे मुक्त वही होते हैं जो तीनों गुण के बंधन से परे हो जाते हैं । योगर्षि श्रीकपिल गुणों की गहन गति को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि भले ही कोई व्यक्ति सतोगुण के कारण सौम्य, शांत, धार्मिक प्रवृत्ति का, संतोषी, मननशील या साधना-परायण हो किंतु वो भी अपनी धारणा-भावना रूपी ज्ञान एवं सत्त्वगुण की आग्रही प्रकृति से मुक्त नहीं हो सकता हैं । जिस साधक को जिस तत्त्व की सिद्धि होती हैं वह उसी तत्त्व के ज्ञानाभिमान से भी बँध सकता है, संभव है कि वो पुण्यकर्मों की प्रवृत्ति में ही बँधा रहे और जन्म - जन्मातर से स्वर्गोचित सुख मात्र का ही भोग करता रहे किंतु आध्यात्मिक आरोहण के उच्चतम शिखर को प्राप्त करने के लिए उसे सत्वगुण की स्वर्णमय दीवार को भी काटना ही होगा।
इसी प्रकार रजोगुण की अधिकता में जीव नाना प्रकार के कर्मो में संलग्न रहकर लोकोपकार भी करते हैं, किंतु फिर भी यश, मान की लिप्सा से, आशा कामना की पूर्ति के अहंकार से ग्रस्त रहते हैं । भले ही वो जगत में प्रचण्ड कर्म कर मिसाल बन जाए परंतु उनके राजसिक कर्मों के फलस्वरुप उन्हें बार-बार पृथ्वी पर मनुष्य योनि में जन्म लेना ही पड़ता है। तमोगुण की जड़ता तो त्याज्य है ही जो सुख की चाह में दुख अपना लेता है, जागृति के बदले निद्रा ही को सुख मानता है। जिनमें तमोगुण की अधिकता रहती है वह अज्ञानता के आवरण से स्वयं को मुक्त नहीं कर पाता है।
जीव इन तीनों गुण में से किसी दो गुण को दबाकर या उभारकर तीसरे गुण को उभारते या दबाते हैं । यदि हमें चित्त मे सतोगुण का उदय करना है तो निश्चय ही चित्त में रजोगुण एवं तमोगुण से मुख मोड़ेंगे । यदि मनुष्य आलस्य, तंद्रा, निद्रा का त्याग करे और राजसिक कामना-लालसा के कर्मों से स्वंय को अलग करे तो निश्चय ही उसके चित्त में सत्त्वगुण की वृद्धि होगी । इसी प्रकार अन्य गुण के संबंध में भी जानना चाहिए । यह त्रिगुणात्मक संस्कार जन्म जन्मांतर से जीव के चित्त के आश्रय से संक्रमित होता है । जिस क्षण वो जीव स्वभाव से मुक्त हो ब्रह्म के स्वभाव में जगेगा, उस क्षण वो पूर्ण मुक्ति को वरण करेगा।