गीता का दसवाँ अध्याय विभूतियोग है । इसमें कुल ४२ श्लोक हैं । इस अध्याय के प्रारंभ में भगवान अर्जुन से कहते हैं कि वासुदेव ही सम्पूर्ण जगत की उत्पत्ति के कारण हैं और सारा जगत उनमें ही चेष्टा करता है । इस प्रकार इस ज्ञान को भगवान अर्जुन से तत्वतः जानने को कह रहे हैं । इसी क्रम में अर्जुन भगवान से उनकी विभूतियों के बारे में बताने का आग्रह करता है और प्रत्युत्तर में भगवान उनसे अपनी विभूतियोंका वर्णन करते हैं । इस संसार में जो कुछ भी तेजवंत, श्रेष्ठ और महान हैं उनमें परमेश्वर की विशेष उपस्थिति हैं । स्वयं वह जीवधारियों की चेतना बने हैं किंतु सहजता से जानने में नहीं आते । भगवान के इस दुर्बोध स्वरूप को स्पष्ट करते हुए योगर्षि श्रीकपिल कहते हैं कि भगवान को ठीक ठीक जानना मात्र भगवान के लिए ही संभव है। बड़े-बड़े तत्वज्ञानी, सिद्ध योगिजन या भक्तजन भी भगवान के संपूर्ण स्वरूप को नहीं जानते क्योकि यदि कोई भावसिद्ध, ज्ञानसिद्ध या योगसिद्ध दुर्लभ ऋषि भगवान के साथ तदात्म होते भी हैं तो उनकी यह अवस्था सर्वदा नहीं रहती है । कोई एक कल्प के अंत मे तो कोई दो-चार कल्प के अंत में स्वरूप के साथ ही भगवान में लय कर जाते हैं। भगवान लाखों करोड़ों नही अनन्तानन्त कल्पों से सृष्टि-चक्र चला रहे हैं । अतः उनके बारे में देवता भी ठीक-ठीक नहीं जानते जो मन, बुद्धि, प्राण, विज्ञान आदि के आश्रय से सृष्टि-कर्म में प्रवृत्त हैं । ये देवतागण भी कल्पान्त में ब्रह्म में लीन हो जाते हैं । अतः किसी शास्त्र के आधार पर या महर्षियों,देवताओं के वचन के आधार पर ऐसा कोई भी तथ्य स्थापित नहीं किया जा सकता है जिसका स्वयं ब्रह्म अतिक्रमण नहीं करता है। सृष्टि के जितने भी तेजवंत, ओजवंत, पवित्र, बलशाली विभूतियाँ है वो अपना अस्तित्व ब्रह्म के कारण ही रखती हैं किंतु क्षण-क्षण वर्धमान ब्रह्म की सकल विभूति के सामने वो नगण्य हैं । सृष्टि की समस्त सिद्धि उनकी विभूति हैं किंतु वह सिद्धि तो ब्रह्म के वास्तविक आनंद, चेतना, ज्ञान के सामने एक तुच्छ वस्तु है। इन सिद्धियों से मुख मोड़कर भगवान के प्रेमी सदा उन्हीं की कृपा का बाट जोहते हैं।