श्रीमद्भगवद्गीता के नवम अध्याय राजविद्या राजगुह्य योग के नाम से प्रसिद्ध है । इसमें कुल ३४ श्लोक हैं । सम्पूर्ण अध्याय में मात्र श्रीभगवान की वाणी है जो अर्जुन से इस अति गोपनीय विद्या का उपदेश करते हैं जो राजविद्या कहलाती है । इस अध्याय में उस गूढ रहस्य का प्रकाशन किया गया है जिसे जानकर साधक भगवान को ठीक-ठीक भजने का सूत्र पा जाता है । इसके रहस्य का उद्घाटन करते हुए योगर्षि श्रीकपिल कहते हैं कि जिसकी जैसी वृत्ति होती हैं वैसा ही उनका देवता होता है और उसी प्रकार उनके लोक का निर्माण होता है। जो राक्षसी-आसुरी प्रवृत्ति के मनुष्य हैं उनमें तमोगुण-रजोगुण की प्रधानता रहती है । इस अवस्था में उनके इष्ट भी तामसिक एवं राजसिक सत्ताही होती हैं। उन देवताओं को भजने के कारण वे मरणोपरांत उन्ही के लोक को प्राप्त करते हैं। कोई सात्त्विक मनुष्य सतोगुण के प्रभाव से देवी-देवता का ही भजन-पूजन करते हैं। लेकिन यदि उनके मन में भी भोग की कोई कामना विद्यमान रहती है तो वे अपने पुण्य के अनुसार पुण्यधाम अर्थात स्वर्ग को प्राप्त करते हैं । किंतु जब बहुत काल तक वहाँ रहने के बाद उनके भोग समाप्त हो जाते हैं तो उनका पुनःजन्म हो जाता है। वे पुनः मर्त्यलोक के भवचक्र में भ्रमण करते रहते हैं । इस संसार में हम नाना प्रकार की उपासना में लीन मनुष्यों को देखते हैं। कुछ लोग मारण, मोहन, वशन, उच्चाटन आदि क्रिया ही सीखते हैं । वे अभिचार कर्म में सिद्धहस्त होने के लिए भूत-प्रेत को ही इष्ट बना लेते हैं । लौकिक जगत में भले ही वो इन क्रियाओं के जानकार हो जायें किंतु मृत्योपरांत वो उसी भूत-प्रेत को प्राप्त करते हैं। इसी प्रकार पितरों को या अन्य देवता को पूजने वाले भी अपने-अपने इष्ट के लोक को ही प्राप्त करते हैं । भगवान कहते हैं कि उन्हे भजनेवाले व्यक्ति उन्हें ही प्राप्त करते हैं किंतु इस वाणी में भी रहस्य हैं । पृथ्वीपर सभी तरह के मनुष्य भगवान का ही नाम लेते हैं किंतु क्या वे सभी भगवान को ही प्राप्त होते हैं। नहीं। क्योंकि उनकी कामना-लालसा का प्रतिनिधित्व करनेवाले सूक्ष्मजगत की सत्ता ही उनकी उपासना को ग्रहण करती है फिर मृत्योपरांत जीव उन्हें ही प्राप्त करते हैं । अतः यदि हमें भगवान को ही सदा स्मरण करना है और हम चाहते हैं कि हमारी पूजा को भगवान ही ग्रहण करें तो हमें अपने चित्त को उन व्यर्थ की आशा कामनाओं से मुक्त करना होगा जिनमें उलझकर साधारण मनुष्य को भगवान के सर्वव्यापकता एवं महानता पर श्रद्धा भी नही होती । यदि कोई असुर, यक्ष या अन्यान्य देवताओं से मनुष्य की तात्कालिक इच्छा पूरी भी हो जाती है तो उसका आवागमन का चक्र नहीं छूटता है । परमेश्वर की शरणागति से ही जीव की लालसा-कामना की ग्रंथि छूटती है और वह प्रवृत्तिमार्गी से निवृत्तिमार्गी साधक बनकर भवचक्र से मुक्त होता है।