गीता के अठारहवें एवं अन्तिम अध्याय का नाम मोक्ष सन्यास योग है। इसमे कुल ७८ श्लोक हैं । अध्याय के आरंभ में अर्जुन एकबार पुनः संन्यास एवं त्याग के तत्व को पृथक-पृथक जानने की जिज्ञासा करता हैं । प्रत्युत्तर में, श्रीभगवान उसे कहते हैं कि यज्ञ, दान और तप त्यागने योग्य कर्म नही हैं । किंतु उसे फल की इच्छा त्याग कर करना चाहिए। यदि कोई पूर्णतः कर्म संन्यास लेना भी चाहे तो यह सर्वथा संभव नही हैं कारण जीवमात्र कुछ न कुछ कर्म करता ही रहता है । फिर तो उसके लिए फल-त्यागही श्रेयस्कर है ताकि वह कर्म बंधन में न पड़े। अब प्रश्न यह उठता है कि कौनसी अवस्था में हमें फल की स्पृहा से मुक्ति मिलेगी ? प्रत्युत्तर में योगर्षि श्रीकपिल कहते हैं कि जब तक साधक को अपने कर्ता होने का भाव खतम नहीं होता तबतक वो कर्म की फलासक्ति से भी मुक्त नही होता । अतः आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रथमतः उसे यह धारणा सिद्ध करनी पड़ेगी कि वह शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि, चित्त से पृथक अकर्ता आत्मा है। जिस क्षण उसे अपने अकर्तापन का बोध होता हैं उसी क्षण उसकी कर्मग्रंथि छूट जाती है - उस के प्रारब्ध के पहाड़ विभक्त होने लगते हैं । इसीलिए सांख्ययोगी इन्ही धारणा में रात-दिन डूबा रहता है । प्रत्येक क्रिया में अकर्तापन को अनुभव करने के लिए उसे योगाभ्यास का भी अवलंबन लेना पड़ता हैं । आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, त्राटक, ध्यान, धारणादि यौगिक साधना में दत्तचित्त हुआ साधक कुंडलिनी जागरण का अनुभव करता है और उसे ध्यान में ब्रह्म के विविध रूप, रंग, वर्ण आदि का अनुभव होता है। ब्रह्म साक्षात्कार में उसे अपने सर्व शक्तिशाली स्वरूप की अनुभूति भी होती है । उसे अनुभव होता है कि उसकी उपस्थिति एवं उसका बल मात्र उसके शरीर के सीने तक सीमित नहीं हैं अपितु पूरे कमरे को भेदते हुए आकाश आदि ब्रह्मांड में फैल गया है । अलग-अलग तत्त्व-साक्षात्कार से साधक ब्रह्म को ठीक-ठीक जानने लगता हैं । यदि उसे पृथ्वी तत्त्व का साक्षात्कार होता हैं तो उसे लगता है कि उसका शरीर और समस्त ब्रह्मांड पृथ्वी ही हो गया है । इसी तरह जल, अग्नि, वायु, आकाश आदि तत्त्व के साथ मन, बुद्धि, प्राण की सर्वव्यापकता का भी बोध होता है । जो मन प्रत्येक जीवके मन से अवगत है, उसका प्रेरक और स्वामी है वह महामन है। इसी प्रकार साधक महाप्राण, अतिबुद्धि आदि से अवगत होता है। भगवान अर्जुन से ऐसे ही मन, प्राण, बुद्धि वाला बनने को कह रहे हैं। तभी उसके कर्म दिव्य होंगे जो बंधन में डालने वाला नहीं है । इस अवस्था को प्राप्त करने के अभ्यास में चित्त को विषयशून्य करना पड़ता है जो वायु को बाँधने की तरह कठिन प्रतीत होता है । राजसिक मनुष्यों को विषय - भोग भले ही अमृत तुल्य लगता हो किंतु उसका परिणाम शरीर में रोग-व्याधि के रूप में प्रकट होता है और मरणोपरांत उनको सूअर-कूकर आदि अधम योनियों में भ्रमण करना पड़ता हैं किंतु सात्त्विक वृत्तिवाले साधक के गंभीर ध्यान में जो सुख उत्पन्न होता है, ब्रह्मतेज का स्पर्शजन्य जो आह्लाद है वह तो अमृत से भी बढ़कर है।
अतः यह जीव को स्वयं निर्णय करना पड़ता है कि वह भोगपरायण, इन्द्रिय-लोलुप सुख का भोक्ता बनेगा या अंतर्मुखी ध्यान-धारणा-जन्य आनन्द का । यद्यपि गुणों के वशीभूत हुआ ही जीव बुद्धि से निर्णय लेता है तथापि वह अपने समर्पण, तपस्या, भगवद-शरणागति से अपने स्वभाव का अतिक्रमण कर दिव्य जीवन का अधिकारी बनता हैं । भगवान के प्रति समर्पण सगुण ब्रह्म के प्रति समर्पण है जो विशुद्ध सतोगुण को धारण किए हुए हैं । निर्गुण ब्रह्म गुणों से अतीत हैं । सगुण ब्रह्म ही प्रकृति के समस्त यज्ञों के अधीश्वर हैं; सृष्टि के सृजन-पालन-संहार करने वाले त्रिदेव हैं । विश्व-कल्याण के लिए अलग-अलग देश काल में अवतरित होने वाले अवतार हैं। उन्हीं की प्रेरणा से जीव के अन्तः हृदय में स्थित भगवान गुण, माया के द्वारा जीव को चलाते हैं। यह जीव का धर्म हैं कि वो हृदय पुरुष के प्रत्यक्ष संकेत अर्थात भगवान की प्रत्यक्ष वाणी के अनुसार चले न कि गुण-माया की वशीभूत हुई इन्द्रियों के अनुसार । जीव का स्वधर्म आत्मा का धर्म हैं जिसका थोड़ा सा भी पालन आत्मसुख देने वाला होता है। जबकि इंन्द्रियों के विषय धारण करना परधर्म है जो निश्चय ही परलोक में भय देने वाला होता हैं । साधक आत्मनिष्ठ होकर, भगवद्परायण होकर ही कमों के कर्तापन से, फल की आसक्ति से या प्रारब्ध के बंधन से छूट सकता है न कि इन्द्रिय के धर्म से तादात्म्य स्थापित कर । इसीलिए भगवान अर्जुन से कहते हैं कि अपने मन, बुद्धि, प्राण आदि समस्त ज्ञानेन्द्रियों एवं कर्मेन्द्रियो के धर्म को छोड़कर उसे एकमात्र भगवान रूपी आत्मा के धर्म को स्वीकार करना चाहिए । ऐसा करते ही वह समस्त पाप से मुक्त हो भगवान द्वारा अचल मुक्ति से पुरस्कृत किया जायेगा।
गीता स्वंय भगवान श्रीकृष्ण के मुखारविन्द से निकली हुई अमृतवाणी है । अतः इसके भाव में जो अतिशय श्रद्धा रखकर इनका मनन करेगा वह आत्मज्ञान के किसी न किसी पंथ से निश्चय ही सिद्धि प्राप्त करेगा। गीताशास्त्र में आध्यात्मिक पूर्णता के कई पृथक-पृथक मार्गों का वर्णन किया गया है - उनकी सिद्धि के स्वरूप एवं साधना के मर्म बतलाये गये हैं । साधक अपनी रुचि के अनुसार श्लोकों को चिह्नित कर ले और निरन्तर उन्हीं का मनन करे । इस प्रकार निरन्तर अभ्यास एवं वैराग्य से गीता ज्ञान अंतःकरण में प्रकट होगा।
आज माघ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि विक्रम संवत २०७६ तदनुसार अंग्रेजी तारिख ०५ फरवरी सन २०२० ईसवी को यह “गीता के दो शब्द" लघुग्रंथ का लेखन योगर्षि श्रीकपिल द्वारा अपने शिष्य मनुराज झा के ४०१, साई स्वर्ग, सेक्टर ६, न्यू पनवेल, नवी मुंबई स्थित आवास में संपन्न हुआ।