श्रीमद्भगवद्गीता के बारहवें अध्याय का नाम भक्तियोग है । इसमें कुल २० श्लोक हैं । प्रस्तुत अध्याय के नामानुरूप ही भक्त के लक्षणों का वर्णन है । इसका प्रारम्भ अर्जुन की उसी शाश्वत जिज्ञासा से होता है कि भगवान के सगुण रूप के उपासक श्रेष्ठ हैं या निर्गुण ब्रह्म के वेत्ता । प्रत्युतर में पूर्व की भाँति ही भगवान सगुण एवं निर्गुण मार्ग के फल की समानता की बात करते हैं किंतु सगुण रूप की उपासना को निर्गुणोपासना से सुगम बताते हैं । क्योंकि, श्रीभगवान के अनुसार जीव साधारणतः देह में आसक्त होता है और ऐसे देहाभिमानियों को निर्गुण निराकार बह्म की धारणा कष्टकर होती है । इसके कारण को स्पष्ट करते हुए योगर्षि श्रीकपिल कहते हैं कि ब्रह्म के निर्गुण भाव के उपासक अपने अहं तत्त्व को ही ब्रह्म में लय करते हैं । वे प्रतिक्षण अपनी आत्मा के तेज, बल, विभूति का स्मरण करते हुए उसके अकर्तापन का अनुसंधान करते हैं । वे प्रत्येक क्रिया चाहे वह खाना-पीना, देखना, चखना, चूधना, स्मरण करना या विचार करना क्यों न हो - उससे अपने आप को निर्लिप्त मानते हैं। आत्मा के अक्षय, अभय, अकर्ता, निर्लिप्त स्वरूप की धारणा जब सिद्ध होने लगती है तब इन्द्रिय, मन, बुद्धि आदि आत्मा के तद्रूप हो जाते हैं पुनः जब मन, बुद्धि में अपनी तद्रूपता से आत्मा स्वयं को वापस खींचती है तो संभव है कि साधक का मानसिक संतुलन बिगड़ जाय या शारीरिक कष्ट उत्पन्न हो । इसी कारण से इस साधना को करनेवाले प्रायः पारिवारिक, सामाजिक उत्तरदायित्वों का निर्वहन करने में असक्षम होते हैं । ये पूर्णतः वैरागी, त्याग-तपस्या का जीवन जीने वाले, शम-दम की रीति से परिचित, ज्ञानी योगियों की साधना हैं । इसमें जब कभी-कभी देहभान से साधक मुक्त होता है तो उसके शरीर की दुर्घटनाग्रस्त होने, जलने, कटने आदि की भी संभावना रहती है । यहाँ तक कि देहपात भी संभव है। धीरे-धीरे निर्गुण निराकार ब्रह्म के तेज, बल, विभूति को धारण करने में साधक का मन-प्राण आदि सक्षम होता है एसलिए इस साधना को भगवान कष्टकर कहते हैं । वही सगुण ईश्वर की धारणा-भावना करनेवाले अपने अहंकार को भगवान के दास अथवा दासी, मित्र, माता, पिता, आदि रूपों से तदात्म करते हैं । वात्सल्य, साख्य, दास्य, माधुर्य या शांत रस का अनुभव करते हुए वे अपने चित्त का भावान्तरण, क्रियान्तरण एवं विचारान्तरण करते हैं । सगुण ब्रह्म के प्रति कर्म फल का समर्पण सहज होता है । इसमें अहं को पूर्णतः लय नहीं करना पड़ता किंतु भगवान दोनों मार्ग की अलग-अलग विशेषता बतलाते हुए पुनः कहते हैं कि ज्ञानी योगी हो या कर्मयोगी भक्त- चित्त की निर्मलता, वैचारिक शुद्धि, सात्त्विक भाव-वृत्ति तो दोनो को चाहिए । यदि कोई भक्त चारित्रिक संयम - नियम के बिना भावुक होकर भगवान को बुलाता है तो उसका भी मानसिक संतुलन एवं शारीरिक स्वास्थ्य की हानि की प्रबल संभावना रहती है। इसीलिए भगवान अर्जुन से, ज्ञानियों, ध्यानियों, भक्तों, कर्मयोगियों आदि की विशेषता को कहते कहते उसके सामूहिक लक्षण - समता, स्थितप्रज्ञता, सर्वभूत के प्रति क्षमा, दया, मैत्री, सेवा का भाव, उदासीनता, समर्पण, संयम, संतोष, श्रद्धा आदि को धारण करने की बात करते हैं । इनके विना कोई भी साधना सफल नहीं हो सकती है।