गीता भारतीय अध्यात्म-जगत में सर्वाधिक सेव्य ग्रंथ है । भगवान की वाणी के रूप में इसकी प्रतिष्ठा निर्विवाद है । इसी कारण, इस ग्रंथ पर अनेक आचार्यों एवं विद्वतजन की टीका हमें प्राप्त है । अपने-अपने मत की पुष्टि एवं दूसरों के मत का विरोध करने में भी गीता शास्त्र का सदैव सहारा लिया गया है। गीता के प्रत्येक श्लोक पर हमें इतने व्यापक शब्दार्थ एवं भावार्थ के भण्डार प्राप्त हैं कि उस पर कुछ नवीन रचना के प्रयोजन पर प्रश्नचिह्न लगना स्वाभाविक है, तथापि “गीता के दो शब्द" की सार्थकता इसी में है कि यह योगर्षि श्रीकपिल के साधना-पथ पर अनुभूत तथ्य हैं । योगर्षि बचपन से ही गीता प्रेमी रहे हैं । उच्च विद्यालय में अध्ययन करते समय आप गीता के ऐसे श्लोकों को चिह्नित कर उसका अभ्यास करते थे, जिसमें सांख्ययोग का स्वरूप है । बिना किसी गुरु के आपकी सांख्य, योग एवं वेदांत की साधना का आधार तोगीता के महावाक्य ही रहे हैं । अतः गीता के किन्हीं श्लोकों का जब आप आशय प्रकट करते हैं तो वह आपकी साधना में प्राप्त हुई अनुभूतियाँ ही होती है न कि कोइ अन्य तर्क, प्रमाण या विश्लेषण।
प्रस्तुत ग्रंथ के प्रत्येक अध्याय में किसी तथ्य-विशेष पर योगर्षि श्रीकपिल की अनुभूति एवं धारणा हमें साधना के मर्म को समझाने में सहायक होगी । ज्ञान का उपदेश एक अवस्था है और ज्ञान को धारण करना दूसरी अवस्था है। जब हम शास्त्रों में किसी तथ्य को पढ़ते हैं तो एक बौद्धिक सूचना ही ग्रहण करते हैं किंतु जब उसका सतत चिन्तन-मनन कर साक्षात्कार करते हैं तो वह ज्ञान एवं भाव हमें सिद्ध हो जाता है । साक्षात्कार के क्रम में जो हमारी वृत्ति होती है, संकल्प एवं धारणा होते हैं, उन परिस्थितियो में जो हमें बाधाएँ एवं सहायता प्राप्त होती है उन सबका वर्णन अध्यात्म-जिज्ञासुओं के लिए अति महत्त्व का है। प्रस्तुत ग्रंथ गीता के दो शब्द' अपने लघु आकार में ही साधकों की इन जिज्ञासाओं को पूर्त करती है । यह हमें त्याग, वैराग्य से भूषित ज्ञान का मर्म समझाती है तो भक्तिसमर्पण से समन्वित कर्मयोग का आशय भी। अध्यात्म की साधना में इन्ही का मर्म समझना ध्येय होता है। अतः योगर्षि श्रीकपिल ने अपनी संक्षिप्त व्याख्या में उन बिन्दुओं पर ही अधिक प्रकाश डाला है जिससे हम भगवान के प्रति समर्पण करने में सक्षम हों; ज्ञान के विविध आयाम को ग्रहण करने में समर्थ हो । अन्य जो शास्त्रीय ज्ञान हैं उनका पूर्व विवेचन-विश्लेषण ही पर्याप्त है अर्थ प्रकाशन में । अतः इस ग्रंथ में गीता का अक्षरशः श्लोकानुसार शब्दार्थ वा भावार्थ नहीं प्रकाशित किया गया है अपितु किसी भाव-विशेष का ही विवेचन हुआ है।
___ जो साधक-साधिका गीता के उच्च मूल्य, आदर्श एवं सिद्धि प्राप्त करना चाहते हैं उनके साधना-पथ पर ये 'गीता के दो शब्द' अत्यंत महत्त्व के हैं । इसका बार-बार अध्ययन-मनन करने से वे अपनी जिज्ञासा की शांति अवश्य करेंगे - इसमें संदेह नही है।