गीता के सत्रहवें अध्याय का नाम श्रद्धात्रयविभाग योग है। उसमे कुल २८ श्लोक हैं । इस अध्याय में भगवान सात्त्विक, राजसी एवं तामसिक श्रद्धा के अलग-अलग लक्षण एवं उस-उस श्रद्धा में भावित होकर किए गए तप, दान, यज्ञ एवं आहार आदि का वर्णन करते हैं । एक ही कर्म किस प्रकार श्रद्धा की विशेषता से भिन्न-भिन्न फल देने वाला होता है वह रहस्य इसी अध्याय में भगवान प्रकट करते हैं । इस रहस्य पर प्रकाश देते हुए योगर्षि श्रीकपिल कहते हैं कि श्रद्धा वृत्ति के अनुरूप होती है अर्थात सात्त्विक वृत्तिवाले मनुष्य की सात्त्विकी श्रद्धा और राजसिक-तामसिक वृति वाले मनुष्यों की राजसिक तामसिक श्रद्धा सहज ही उत्पन्न होती हैं । वृत्ति अनुरुप ही जीव के देवता हैं अर्थात जब सात्त्विक श्रद्धा से इष्टोपासना की जाती है तो उसकी पूजा को देवी - देवता ही ग्रहण करते हैं । राजसिक श्रद्धावाले मनुष्यों की पूजा को यक्ष - राक्षस - असुर आदि ही ग्रहण करते हैं एवं तामसिक वृत्तिवाले मनुष्य के इष्ट तो भूत प्रेत पिशाच-वैताल आदि ही होते हैं । भले ही कोई तामसिक प्राणी राम-राम ही जपे, वह ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि देवों का ही ध्यान धरे किंतु उसे सिद्धि तो इस सात्त्विक देवों की नही अपितु किसी तमोगुणी भूत-प्रेतादि की ही होगी। मरने के बाद वह उनके ही लोकों में दीर्घ समय तक निवास करेगा । इस प्रकार जीव की वृत्ति अर्थात श्रद्धा ही देवता एवं लोक की निर्मात्री है । भले ही किसी व्यक्ति को शास्त्र ज्ञान न हो, वह मंत्र जप, पूजा-पाठ, तप-त्याग करने में निष्णात नहीं हो किंतु यदि उसकी वृत्ति सात्त्विकी है तो उसके भाव को देवता ही ग्रहण करेंगे।
सबसे श्रेष्ठ श्रद्धा, सबसे श्रेष्ठ तत्त्व एवं सबसे श्रेष्ठ सत्य के रूप में परमेश्वर ही प्रतिष्ठित है अतः उनके निमित्त किया गया यज्ञ, तप या ज्ञान सबसे श्रेष्ठ कहा गया है और अन्य सांसारिक पदार्थो के लिए किया गया यज्ञ, तप और ज्ञान कनिष्ठ कहा गया हैं। प्रदर्शन हेतु यज्ञ और दान करने का कुछ भी प्रयोजन नहीं हैं क्योंकि मात्र दिखावा, पाखंड एवं ढोंग के कारण किया गया शुभकर्म न तो इस लोक में ही फल देने वाला होता है और न ही परलोक में।