गीता के तीसरे अध्याय का नाम कर्मयोग है। इसमें कुल ४३ श्लोक हैं। इस अध्याय का प्रारंभ अर्जुन की इस उलझन से होता है कि यदि भगवान सांख्ययोग की शिक्षा दे रहे हैं - त्याग और वैराग्य की बात कर रहे हैं तो उसे फिर युद्ध जैसे घोर कर्म में क्यों लगाते हैं । इसलिए वह प्रभु श्रीकृष्ण से स्पष्ट रूप से फिर पूछता है कि आखिर वो सबकुछ त्याग कर सांख्ययोगी बन जाय या सांसारिक व्यक्ति की तरह कर्म में लग जाय । प्रत्युत्तर में भगवान उसे कर्मयोग की शिक्षा देते हैं । एक सामान्य मानव जिस तरह ज्ञान और कर्म को बिल्कुल अलग-अलग मानता है उसके विपरीत भगवान अर्जुन से कहते हैं कि बिना कर्म किए हुए कोई निष्काम कर्मयोगी नही बन पाता और न ही मात्र त्याग करने से कोई संन्यासी बन पाता है अर्थात, कोई ज्ञानमार्गी हो या कर्मयोगी उसे कुछ न कुछ कर्म तो करना ही पड़ेगा। इस तरह ज्ञान और कर्म को समान महत्व देते हुए भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से यज्ञ रूप कर्म करने को प्रेरित करते हैं । ज्ञानयोग एवं कर्मयोग की इस गुत्थी को सुलझाते हुए योगर्षि श्रीकपिल कहते हैं कि ज्ञानयोगी को कर्म में कर्तापन का अभाव रहता है और कर्मयोगी को कर्म में आसक्ति का अभाव रहता हैं । ज्ञानयोगी को कर्म में कर्तापन का अभाव इसलिए हो जाता है कि वह मन, बुद्धि, इन्द्रिय आदि से होने वाले सम्पूर्ण कर्मों से स्वयं को अलग मानता है । वह आत्मा में प्रतिष्ठित होता है। वहीं कर्मयोगी को कर्म में आसक्ति तब नहीं होती जब रजोगुण की शान्ति के बाद उसकी कामना, लालसा शान्त हो जाती है। विशुद्ध सतोगुण के आश्रय में वह अपने समस्त कर्म को भगवदार्पण कर उसकी आसक्ति से स्वयं को अलग करता है । चाहे ज्ञानयोग हो या कर्मयोग जबतक सतोगुण का उदय नहीं होगा तबतक उसकी साधना सफल नहीं होगी। इसलिए जब अर्जुन भगवान से पूछता है कि लोग न चाहते हुए भी क्यों पाप कर्म में लिप्त हो जाते हैं तो भगवान कहते हैं कि रजोगुण से उत्पन्न हुआ काम ही मनुष्य को पाप में लिप्त कर देता है । योगर्षि श्रीकपिल के अनुसार काम ही हेय है । जबतक जीव के मन, बुद्धि, इन्द्रिय आदि में कामोपभोग की वृत्ति है तब तक उसकी चेतना बहिर्मुखी ही रहेगी, तबतक पुनरपिजननं पुनरपि मरणं का क्रम चलता ही रहता है । जिस जन्म में जीव काम मुक्त हो जाता है उस जन्म से उसकी अन्य वृत्तियाँ भी शान्त होने लगती है । जब तक काम-वृत्ति चित्त में सिंहासनारुढ होती है तब तक क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर आदि वृत्ति भी जीवित रहती हैं । काम की निवृत्ति से इनकी भी निवृत्ति हो जाती है । अतः जीव के दुख का मूल हेतु काम ही है जो रजोगुण से उत्पन्न हुआ है। आहार-विहार पर संयम एवं भागवत-शरणागति से काम पर विजय प्राप्त की जाती है । यह तभी संभव है जब सतोगुण का उदय हो । बिना वैराग्य से ज्ञान या सिद्धि नही मिलती, बिना सतोगुण के उदय से वैराग्य, तपस्या, ब्रह्मचर्य आदि वृत्ति का उदय नहीं होता । अतः सतोगुण का उदय आध्यात्मिक उन्नति का मूल है जो तमोगुण एवं रजोगुण के शमन से संभव है।
अतः साधना चाहे ज्ञानमार्ग की हो या प्रेममार्ग वा कर्मयोग की-ये सभी एकसमान तपस्या एवं समर्पण कि माँग करती है। यदि शंकराचार्य ने कठिन तपस्या कर ब्रह्म को प्राप्त किया है तो क्या मीरा की कृष्ण-प्राप्ति सहज है? दोनों ने एक जैसी ही कुर्बानी दी है । यदि किसी को ईश्वर को पाना है तो उसे भी वही कुर्बानी देनी होगी जो उससे पहले अन्य लोगों ने दी है।