गीता के सोलहवें अध्याय का नाम दैवासुरसम्पद विभाग योग है । इसमें कुल २४ श्लोक हैं । इस अध्याय में दैव सम्प्रदाय एवं आसुरी सम्प्रदाय का विशेषतः वर्णन है। श्रीभगवान कहते हैं कि उन्होंने पूरी सृष्टिको मुख्यतः दोसर्गों में विभाजित किया है । एक तो वो हैं जो शुभ कार्य, शुभ संकल्प, शुभ वृत्ति के धारक हैं। जिन्हें दैव संप्रदाय का प्राणी कहा जाता है । वहीं एक वो हैं जो सदा अशुभ कार्य, अशुभ संकल्प एवं अशुद्ध वृत्ति के धारक हैं, इन्हे आसुरी संप्रदाय का प्राणी कहा जाता है । इनकी विशेषता को बतलाते हुए योगर्षि श्रीकपिल कहते हैं कि पाप और पुण्य ही आसुरी संप्रदाय एवं दैवी संप्रदाय के आधार हैं। जब जीव पाप के आश्रय से बहिर्मुखी, भोगपरायण, स्वार्थलोलुप, वासनामय जीवन जीता हैं तब वह आसुरी संप्रदाय का रहता है, इसी प्रकार पुण्य के प्रकाश से प्रकाशित दैवी संप्रदाय के जीव अंतर्मुखी, परमार्थी, त्यागी एवं वैरागी होते हैं। वे स्वभावसे शुभ कर्म करते हैं न कि दिखावा के लिए। आसुरी संप्रदाय के मनुष्य को भगवान से प्रेम नही होता है । सृष्टि के विधान में ऐसा विरले ही होता है कि कोई आसुरी संप्रदाय का जीव दैवी संप्रदाय के जीव में संक्रमित हो सत्य के मार्ग पर चले । ऐसा परिवर्तन भगवान की शरणागति ग्रहण कर साधना-परायण होने से ही घटित होता है । जीव का ऐसा भावान्तरण, विचारान्तरण एवं क्रियान्तरण श्रमसाध्य है और कृपासाध्य भी । संसार में जितने भी प्रकार की साधना है उसमें शरणागति सर्वश्रेष्ठ है । जब जीव अपने कर्मोंपर पश्चाताप करता हुआ अपनी इन्द्रियों को विषयों से मोड़कर भगवान से आँसू बहाकर कृपायाचना करता है तो शनैः शनैः भगवकृपासे उसके स्वभाव में शुभ परिवर्तन होने लगता है।
अतः साधक जब तक समर्पण के मर्म को नहीं जानता तब तक उसे अपने मन, बुद्धि के गुणावलोकन की भी सामर्थ्य नहीं आती । अपने चित्त में उठने वाली वृत्तियाँ एवं उसके कारण की जाँच-पड़ताल बहुत सूक्ष्मता से करना पड़ता है । इसमें जबतक साधक समर्थ नहीं होता है तब तक उसे अपने मार्ग पर चले हुए पूर्व के साधक की जीवनी एवं उपदेश; ऋषियों, देवताओं की वाणी का सार संग्रह जो शास्त्र आदि है उसका अवलोकन करना चाहिए । शास्त्रों में गहरी श्रद्धा हमें पाप करने से रोकती है एवं असमंजस में धर्माधर्म का विचार देती हैं।