पृष्ट संख्या 1

शास्त्रानुसार प्रेत एक योनि है जिसकी प्राप्ति जीव मरणोपरांत करता है । यह अतिवाहिक देहसंपन्न है जो सूक्ष्म है, अभौतिक है और सर्वत्र आवागमन में सक्षम है । मरणोपरांत जबतक जीव अपने नये पार्थिव या अन्य लोक की जीवन-व्यवस्था में सम्मिलित नहीं होता है तबतक वह प्रेतदेही होता है और तबतक उसका संबंध अपने सद्य: बीते हुए जीवन से किसी ना किसी प्रकार जुड़ा होता है । काल-क्रम से प्रेत-देह की निवृत्ति होती है जिसके शीघ्रातिशीघ्र संपादन हेतु मृतक के पार्थिव कुटुम्ब भी प्रयासरत रहते हैं ।


सृष्टि-चक्र में बिना इच्छा के प्राप्त होने वाली प्रेतयोनि दुखद हैयंत्रणापूर्ण और अज्ञानाबद्ध है- स्वयं क्लेश को आत्मसात करने वाली तो है ही- पार्थिव लोक में भी क्लेश उत्पन्न करने वाली है । अत: प्रेतत्व से मुक्ति सभी चाहते हैं कितु प्रेत की प्रकृति से कोई विशेष मनुष्य ही पूर्णत: परिचित हो पाते हैं । जो अंतर्मुखी मनुष्य भौतिक चेतना से परे सूक्ष्म चेतना को ग्रहण करने में सक्षम हैं, अंतर्दूष्टियुक्त विवेक संपन्न हैं वे प्रेतों के प्रभाव का निष्पक्षतया अवलोकन में सक्षम होते हैं । इनके रहस्यों का उद्भेदन सूक्ष्मलोक के यायावरी योगी ही कर पाते हैं ।


मृत्यु के बाद प्राप्त होने वाला शरीर सूक्ष्म होता है । यह लिंग शरीर कहलाता है जो जीव-भाव का वाहक होता है । जीव की चौरासी लाख योनि में उत्पति लिग शरीर के कारण ही होती है । लिग शरीर के स्वभावानुकूल ही वे सूक्ष्म एवं स्थूल जगत में विविध प्रकार के गुण-धर्म वाले प्राणियों के संतति बनते हैं । जिस काल में जीव के लिंग शरीर का अन्त हो जाता है उस काल में उसे भव-क्लेश से मुक्ति मिल जाती है। फिर वह जन्म-मृत्यु के अनैच्छिक आवर्तन में नहीं फंसता है। अत: जीव को लोक-लोकान्तर में परिभ्रमण करानेवाला तत्व उसका लिग शरीर है । यह देह काल के अन्तर्गत है- इसके स्वभाव में कालक्रम से परिवर्तन होता है । इसकी स्मृतियाँ काल के अधीन हैं जो त्रिगुण के प्रभाव से शुभ-अशुभ या मिश्रित संस्कार को प्रकट करती है । त्रिगुणात्मक स्वभाव


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