पृष्ट संख्या 57

चमकदार बनकर प्रकाशित होते हैं। लेकिन इनमें अपना प्रकाश भी होता है । ये देवी-देवताओं के समान प्रकाशमान रंगीन ज्योतियों से पूर्णत: मिलते हुए वर्ण, प्रकाश में आविभूत होकर बडे-बड़े साधकों को भी दिग्भ्रमित कर देते हैं । कई असभ्य, अमानुषिक जीवन जीने वाले प्रपंचियों के ये उपास्य हैं। विषय-वासना से लुब्ध चित्त वाले मनुष्यों के देवालयों पर इनका अधिकार है; अविधिपूर्वक संपन्न किये गये यज्ञ, तप पर इनका अधिकार है। असुरों के विपुल प्रभाव के कारण ही जीव तन्द्रा, निद्रा, नशा, अज्ञानता की खुमारी में खोया रहता है; जब भगवान प्रत्यक्ष होकर उसके दर पर दस्तक देते हैं तो वह भगवान से भी भोग की ही कामना करने लगता है। अपनी जड़ता-मूढ़ता को स्वीकार करता है और भगवान को अस्वीकार कर देता है । जीवन की यांत्रिक गतिविधियों, वैज्ञानिक खोज, अभियांत्रिकी में असुरों की कुशाग्र बुद्धि कार्यरत है । ये पृथ्वी पर भोग-विलास, सुख-सुविधा के हेतु नाना प्रकार का उद्यम करते हैं । आसुरिक बुद्धि बहिर्मुखी है यह भगवान को नहीं देखती है अपितु अपनी हठी प्रकृति को ही ईश्वर समझने की भूल करती है । अपने तपोबल से असुर देवताओं के लिए अजेय हो जाते हैं। देवता प्रकृति को नियंत्रण में रखकर जो भी सृष्टि नियामक कर्म करते हैं उन सब पर असुर अधिकार कर लेते हैं । धर्म के बाह्य स्वरूप को, दान, व्रत, तप के बाहरी स्वरूप का कठोरता से पालन कर ये अपनी प्राकृतिक शक्तियों को अधीन कर लेते हैं । बिना इनकी आज्ञा के जब काल भी अपना संहार-मुख खोलने में असमर्थ होता है तब स्वयं भगवान अवतीर्ण होकर इन विकराल आसुरिक सत्ताओं का संहार करते हैं ।


जब किसी साधक पर भगवान की कृपा उतरती है, वह भगवान के द्वारा चुन लिया जाता है तो असुरलोक में खलबली मच जाती है । मनुष्य के चित्त के हजारों वृत्ति-कक्ष में असुरों का शाश्वत निवास है । इन कमरों से असुरों का जब निष्कासन शुरू होता है तब अत्यंत रोचक संघर्ष देखा जाता है । जैसे साँप बहुत कक्ष वाले महल के किसी एक कमरा से दूसरे कमरा में चला जाता है वैसे ही जब ईश्वर भक्ति और


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