पृष्ट संख्या 61
भावुक होने के सभी कारणों का त्याग कर दिया जाना चाहिए । जप, पूजा, ध्यान, उपासना- सभी प्रकार के गंभीर एवं हल्के अभ्यासों का त्याग कर मन को अंतर्मुखी होने से रोकना चाहिए । शनै: शनै: चित्त की सामान्य अवस्था को प्राप्तकर ही साधना-परायण होना श्रेयस्कर है ।
- २. प्रेतों के द्वारा दिव्यता का स्वांग किया जाता है अत: साधक को इनके षड्यंत्र को समझने में सक्षम होना चाहिए। इसके लिए प्राप्त संदेशों का, सुझावों का प्रकृति-निर्णय करना चाहिए कि गोया वे सारे तथ्य आध्यात्मिक उत्थान के सहायक हैं या बाधक । इनका साक्षात्कार कर चित्तमें अशांति, द्वेष, अहंकार, वासना, तृष्णादि उत्पन्न होते हैं या आनन्द, चेतना, ज्ञान, शांति, निर्मलता का भाव जगता है । प्रत्येक सूक्ष्म सत्ताओं को दिव्य मानना, ज्योति एवं रूपों को सत्य समझना निरापद नहीं है । अत: साधक को एक निरीक्षणात्मक विवेक–बुद्धि विकसित करना, हृदय-पुरुष को संकेत को समझना एवं लौकिक कामनाओं का त्याग करना चाहिए।
- ३. देखा जाता है कि किसी स्थान या गृह विशेष में जब कई व्यक्तियों की असामयिक मृत्यु हो जाती है तो वहाँ प्रेतों का प्रकोप बढ़ जाता है। कुछ स्थान पर प्रेतों को रहने का अधिकार प्राप्त होता है । अत: ऐसे स्थानों पर मनुष्य को निवास नहीं करना चाहिए । इन स्थलों के त्याग से प्रेतबाधा में कमी आती है ।
- ४.पूर्वजों के निमित्त पितृकर्म का उचित समय पर श्रद्धापूर्वक निर्वहन करें अन्यथा पितरों का प्रकोप परिलक्षित होता है ।
- ५.कुल देवी-देवता का विधिवत पूजन करें अन्यथा इनके कोप से भी सूक्ष्म उपद्रवों का अस्तित्व होता है ।
- ६. प्रेत से ग्रस्त मनुष्य गुह्यवादी के निर्देशन में उपचार कराये । जिन्हें इनके निवारण की सिद्धि प्राप्त होती है उनके द्वारा बताये गये क्रिया अनुष्ठानों के संपादन से प्रेतबाधाग्रस्त मनुष्य को लाभ मिलता है । इसी के अंतर्गत यंत्रधारण, मंत्रोपचार, यज्ञानुष्ठानादि उपचार आते हैं ।