सकता है। अत: अपने धर्म-सम्प्रदाय, कुल के ऋषियों के प्रति, विश्व के अग्रणी आध्यात्मिक प्रणेताओं के प्रति श्रद्धा, समर्पण व अनुशीलन का भाव रखकर मनुष्य स्वयं को ऋषि-ऋण से मुक्त करता है और ऋषि के आशीष, निर्देशन और मंत्र को प्राप्त कर आत्मोद्धार का पथ प्रशस्त करता है ।
यदि मानव अपने नैतिक कर्तव्यों , कुलाचारों, धार्मिक मान्यताओं व लोक-व्यवहार में किंचित भी त्रुटि करता है तो दुष्ट शक्तियों को तंग करने का अवसर प्रदान कर देता है । किसी भी धर्म-सम्प्रदाय के उपासना-स्थल पर पवित्रता का पालन करना चाहिए । यदि वहाँ थूक, मल-मूत्र, कुल्ला आदि यत्र-तत्र फेंका जाय तो वहाँ निवास करने वाली सूक्ष्म सत्ताओं का कोप भुगतना पड़ता है। किसी तीर्थस्थल, नदी, सरोवर, वृक्ष या किसी कब्र, चितावशेष के समीप उगाये गये तुलसी के निकट अपवित्र कार्य करने, उसे पैर मारने या असमय स्पर्श करने पर इन स्थानों के आश्रित सूक्ष्मात्माएँ कुपित हो जाती हैं और इनके दुष्प्रभाव के चिह्न भोक्ता पर लंबी-अवधि तक देखी जाती है । पूजा-स्थूलों पर भी तामसिक-राजसिक उपासकों की उपासना ग्रहण करने के लिए असुर, पिशाचादि अदेवात्माओं का वास होता है । ऐसे पूजास्थल, एकांतवन, शमशान या अन्यत्र ऐसे स्थानों पर जहाँ के सूक्ष्म भौतिक परिवेश में प्रेतों का निवास रहता है- वहाँ यदि कोई आध्यात्मिक सिद्धि से युक्त तपस्वी का आगमन होता है तो उनके तेज से उपस्थित प्रेत जलने लगते है एवं प्रतिक्रियावश प्रेत योगी को नुकसान पहुँचाने की चेष्टा भी करते हैं। इसी प्रकार की घटना तब भी घटती है जब कोई अशुद्धवृत्ति वाला मनुष्य किन्हीं योगी को स्पर्श करता है या उनके समीप उपस्थित होता है । इस स्थिति में योगी के तेज से उद्विग्न हुए आगंतुक के देहस्थित अशुद्धवृत्ति वाली आसुरिक राक्षसी, पैशाचिक आत्मा योगी पर आक्रमण करती है और उनके मन में किसी भी प्रकार की कुवृत्ति पैदा करने में असफल होने पर शारीरिक, प्राणिक, मानसिक रोग, बेचैनी, अनिद्रादि को उत्पन्न करती है । आध्यात्मिक सिद्धि से संपन्न, शिष्यों में शक्तिपात करने में समर्थ