उसके कष्ट को कम करने में देवताओं को भी कष्ट झेलना पड़ता है । देवी-देवता सूक्ष्मजगत में साधक के निमित्त तपस्या कर ही उसे त्रासमुक्त करते हैं । तपजनित क्लेश को भोगकर, शूल से अपने शरीर को बिद्धकर ही भागवत अवतार या सिद्धजन अपने भक्तों को दुष्टात्मा से त्राण देते हैं।
पुण्य, भक्ति, समर्पण, चेतना के आश्रयी देवी-देवता के तेज से रक्षित होने वाले साधकों का कर्तव्य है कि वह यज्ञाहूतियों, उपासनाओं एवं ध्यान-धारणादि के द्वारा अपने भीतर निवास करनेवाली देव-सत्ता को शक्तिवंत करे । साधक का तपोनिष्ठ, देवोपासक शुद्धाचरण क्लेशों को कम करता है। इसके वनिस्पत असंयमी, तपहीन, अशुद्ध आचरणी साधक के अन्तर में निवास करने वाले सात्विक देवता क्लेश पाते हैं और इतने प्रभावशाली नहीं रहते हैं कि साधक को सत्पथ पर आरूढ़ करने के लिए पर्याप्त प्रेरणा और उर्जा प्रदान करें । अत: स्वयं को अशुभ आत्माओं के दुष्प्रभाव से मुक्त करने हेतु सात्विक आचरण व तपस्या की आजीवन आवश्यकता होती है ।
साधक भी अपने-अपने प्रारब्ध एवं चित्तविकार की विशेषता से प्रेतबाधा को भिन्न-भिन्न ढंग से अनुभव करते हैं । साधना मार्ग की अपेक्षा से भी शैतानी शक्तियों की प्रकृति व व्यवहार में अंतर आ जाता है । भक्ति, ज्ञान, योग, तंत्रादि मार्ग के अनुयायी अपने साधना-पथ पर परंपरानुसार कुछ विशिष्ट प्रकार के असुरों, पिशाचों, राक्षसों का अनुभव करते हैं । इनका शमन उन्हीं मागों की पद्धतियों से किया जाता है । वेद-पुराणों में जो देवता एवं दानव के बीच संग्राम का वर्णन है वह रूपक मात्र नहीं है । सूक्ष्मजगत में अब भी एक से एक साँप रूपी पणि, वृक, वृत्र, महिषासुर, गजासुर, धेनुकासुर, वृषभासुर आदि की उपस्थिति है । ये असंख्य हैं । हम शाक्त समप्रदायों में जो देवी के द्वारा रक्तबीज, धूम्रलोचन, महिषासुर, चण्ड–मुण्ड, शुम्भ-निशुम्भ आदि दैत्य-वध का आख्यान देखते हैं वे सभी मात्र प्रतीकात्मक नहीं हैं अपितु जो भगवती के प्रति समर्पण करते हैं वे साधक अनुभव करते हैं कि ऐसी आकृति वाले ढेर अदेवात्मा विश्रृंखलता उत्पन्न करते हैं । कुछ प्रेत धुआँ के ही पुंज हैं उनकी कोई अन्य आकृति नहीं होती है। सूक्ष्मदृश्यों के द्रष्टागण उन्हें