होता है अर्थात जो सत्य, धर्म, त्याग-तपस्या के अवलम्बन लेने वाले हैं, उन्हें तो वे विजातीय, शाश्वत शत्रु समझकर उनके अहित के लिए येन-केन-प्रकारेण प्रयत्नशील रहते ही हैं किंतु जो अपने असत्य, अनैतिक, अविवेकी आचरण के कारण उन्हें प्रिय हैं वैसे अज्ञानी मनुष्य से भी उनकी आसक्ति का परिणाम दुखद होता है । अधोगति को प्राप्त प्रेतात्मा चाहती है और बहुधा सफल भी होती है । प्रेत को किसी मनुष्य को विक्षिप्त करने, रोगग्रस्त करने, आत्महत्या के लिए प्रवृत्त करने, उसके गात में ठौर बनाने में तब ज्यादा सहूलियत होती है जब वह मनुष्य उसके प्रति अत्यधिक मोह-भाव रखता हो, उसकी उपासना करता हो । अत: अपने मरे हुए पूर्वज के प्रति अति भावुक होकर उनकी पूजा-उपासना करनेवाले गृहस्थजन प्राय: संकट में पड़ जाते हैं । ऐसा देखा गया है कि मृत्यु को प्राप्त पूर्वज अपने कुल-संततियों के चित्त में पितृ-उपासना करने के लिए प्रेरणा करते हैं, किसी विशेष प्रकार के आहार, वस्त्र, सामग्री की माँग करते हैं: किसी विशेष पारिवारिक उत्सव, तिथि पर अपने निमित भोग, वस्त्र की माँग करते हैं: किसी विशेष प्रकार की कामना सिद्धि का प्रलोभन दिखाकर, संकटों से रक्षा का आश्वासन देकर अपने लिए पूजा की माँग करते हैं, किंतु इस प्रकार की प्रत्येक माँगों की तत्क्षण पूर्ति करना निरापद नहीं है । ऐसी उपासना के फलस्वरूप तत्काल यदि कुछेक मनोवांछित कामना की पूर्ति दिखलाई भी पड़ती है तो कालान्तर में इसका परिणाम अशुभ ही होता है । असुर, यक्ष आदि देव-विरोधी सत्ता भी अपने पुण्य, तेज एवं तपस्या के बल पर अपने उपासकों को वर देने में समर्थ होते हैं कितु इनके प्रति की गयी भक्ति-अर्चना इन्हें मन-प्राण में प्रतिष्ठित होने का अवसर देती है । फलत: जब ये किसी मनुष्य के मन-प्राण पर धीरे-धीरे अधिकार जमाने लगते हैं तो उन्हें सहज रूप से अशांत, उद्विग्न, दुखी, विक्षिप्त, रोगी बनाकर अन्ततोगत्वा अपने समूह का अंग बना लेते हैं ।
अत: पितृगणों के लिए शास्त्रविधि के अनुसार पितृकर्म करना सहज मानवीय कर्तव्य है किंतु देवता एवं भगवान के समान पितरों की