सुनाते हैं । कर्म के कठोर विधान से अवगत होकर प्रेत पश्चाताप में डूब जाते हैं । उन्हें अपने मानव-जीवन को बातों ही बातों में गँवा देने का अफसोस होता है । वे उन्हीं साधुओं के समीप मैंडराकर अपना उद्धार करवाना चाहते हैं जिनकी अमूल्य संगति की महत्ता को वे मूढ़तावश मनुष्यजीवन में आँक नहीं सके थे । हालाँकि सभी प्रेत में पश्चाताप की भावना भी नहीं होती है । अधिकांश प्रेत अपने अंध स्वभावानुसार अंधकार के क्षेत्र में ईश्वर-विहीन जीवन को अंगीकार कर लेते हैं । उनके हृदय में भगवान के प्रति कुछ भी श्रद्धा, भक्ति नहीं रहती है अपितु रोष रहता है। वे उन पर अन्यायी, कठोर और क्रूर होने का आरोप मढ़ते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि उन्होंने मनुष्य जीवन में ढेर पुण्यकार्य किये थे जिनका सुफल कुछ भी प्राप्त नहीं हुआ और छोटे-से-छोटे पाप का भी गंभीर फल प्रदान किया गया है । ऐसे प्रेत के हृदय में भगवान से मिलने की चाह नहीं होती है । इनका तमोगुणी स्वभाव इनकी प्रकृति की समस्त अच्छाइयों को आच्छादित कर पूर्णरूपेण दुष्टव्यक्त्वि- शैतान बना देता है। पृथ्वी पर जितने भी पशु-पंछी, कीट-कृमि के रूप हैं उन रूपों के सूक्ष्म स्वरूप में इन शैतानी रूहों का अस्तित्व है । नक एवं पाताल लोक में इनका विशाल साम्राज्य है। वहाँ इनका ही प्रभुत्व है। इनके बनाये नियम हैं, इनके ही संकल्प और तप से वहाँ की प्रकृति उनकी सेवा में है । ये मात्र अशक्त, दीन-दुखी ही नहीं हैं वरन महान शक्तिशाली, विषय-भोगों से परिपूर्ण, सखा-संततियों से युक्त भी हैं। ये पिशाच, राक्षस एवं असुर कुल के बलशाली योद्धा हैं जो देवताओं से टक्कर लेते हैं जिन्हें पराजित करना दुसह्य होता है, जो देवताओं को भी पराजित कर उपासना-स्थल पर, स्वर्ग पर अपना अधिकार स्थापित कर लेते हैं । मानवजाति पर भी इनका प्रभुत्व स्थापित है । विरले ही मनुष्य हैं जो इनकी भोगपरक वृत्तियों- काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, ईष्य, हिंसा, द्वेष, आलस्य, तन्द्रा, निंद्रा, विलासी–प्रवृत्ति, ईश्वर-विमुखता, असत्य, कूट-कपट, बहिर्मुखता, स्वार्थ, अपवित्रता, अनैतिकता, स्वेच्छाचारितादि से मुक्त हैं । जो मनुष्य इनसे मुक्त हुए हैं उन्हें इनके साथ जीवन-भर संघर्ष करना पडा है। बिना इन्हें जीते हुए जीव अज्ञान-ग्रंथि का उच्छेदन नहीं कर सकता है ।