'प्रेतत्व' की प्राप्ति करनेवालों में बहुत से ऐसे मनुष्य भी होते हैं जो अपने पार्थिव जीवन में सदाचारी रहे हों । पवित्र आचरण करने वाले व्यक्ति भी अपने किसी पापकर्म के कारण या विगत जन्मों के अशुभ प्रारब्धवश या चित्तगत अशुद्धि के कारण मरणोपरांत प्रेतदेह को प्राप्तकर भोगक्षय करते हैं । दो-चार साल का बच्चा जिसने कि अभी अपने जीवन में पापकर्मों से परिचय भी नहीं पाया है वह भी अपने अशुद्ध संस्कार के कारण- भावात्मिका कौशिका के धूमिल, पापबिद्ध होने के कारण लंबे समय के लिए सूक्ष्मजगत में उतनी ही अवस्था को प्राप्तकर प्रेत-जीवन जीता है। यहाँ तक कि गर्भ में निवास करनेवाला शिशु भी मरने पर प्रेत बनकर सूक्ष्मजगत में घूमता रहता है। यदि किसी माँ और उसके गर्भस्थ शिशु की एकसाथ मृत्यु हो जाती है तो सूक्ष्मजगत में वह शिशु अपनी माँ के गर्भ में ही निवास करता है । अतिवाहिक देह होने के कारण वह गर्भ से निकलकर अन्यत्र आवागमन करने में सक्षम रहता है । कितु कहीं से भी घूमकर वह फिर अपनी माता के गर्भ में प्रविष्ट हो जाता है । इस प्रक्रिया में गर्भवती माँ को अत्यधिक वेदना प्राप्त होती है ।
बार-बार नर्क के निवासियों द्वारा काटने, मारने, जलाने, अंग-भंग करने जैसे घोर दण्ड से प्राप्त होने वाली पीडा-वेदना की तीव्रता को झेलकर मृतकात्मा ईश्वरीय विधान की विरोधी बन जाती है । पल-पल दूसरों को दुख देने की प्रवृत्ति का प्रचूर मात्रा में विकास करती है। उसके लिए भगवान का नाम लेना अपराध है । सत्य बोलना तो दूर की बात रही 'सत्य' शब्द का उच्चारण भी निषिद्ध है । यदि इन दुष्ट प्रेतों को किसी मनुष्य के समक्ष राम, कृष्ण, काली आदि शब्द का उच्चारण करना होता है तो ये इनका पहला अक्षर- रा, कृ, का आदि ही बोलते हैं। इनके लिए दया, क्षमा, मैत्री दर्शाना पाप है ।
इस तरह हम देखते हैं कि सात्विक वृत्ति के अभाव में अधोगति को प्राप्त हमारे पितृ सहज मानवीय आदशों से च्युत हो हमारी ही अधोगति के आकांक्षी बन जाते हैं। वे हमें मित्रवत समझे या शत्रुवत किंतु अपनी दुष्टता के कारण अन्ततोगत्वा नुकसान ही देते हैं। जिनसे उन्हें द्वेष