कितु फिर भी अशुभ सत्ता स्वयं को इतने भव्य और महिमामय व्यक्तित्व के रूप में पेश करती है - उसकी वाणी में इतना सम्मोहन होता है कि साधक बहुधा अंतर और बाहर में उपस्थित दैव-सत्ताओं को पहचान नहीं पाता है । कभी जब बाह्य रूप से प्रकट होकर देवता साधक के कल्याण के लिए कोई सूचना दे रहे होते हैं, उपासना-विधि बता रहे होते हैं तब शैतान भी प्रकट होकर साधक से कहता है— 'तुम कहो इनको (देवता को) चले जाने के लिए।' जबतक साधक की अन्तप्रज्ञा पर्याप्त शुद्ध और क्रियाशील नहीं रहती है तबतक वह दिव्य-अदिव्य वाणी में विभेद नहीं कर पाता है और छली प्रेतों को ही अपना हितैषी समझता है । उनके झाँसे में आकर वह देवता को अस्वीकार कर देता है । उनसे प्रस्थान करने का निवेदन करता है । जब साधक शैतानी रूह के अनुकूल आचरण करने लगता है तो उसे नारकीय आत्माओं के द्वारा खूब प्रशंसा प्राप्त होती है। ये मिथ्या प्रशंसा कर साधक को भटकाती है, अपने-आप को महिमान्वित करते हुए कहती है- अरे बड़े-बडे देवता भी हमारे आगे तुच्छ हैं । वो हमारा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते हैं। हमारी दृष्टि से कोई भी बड़ी सत्ता ओझल नहीं हैं । वे सदैव हमारी आँखों के सामने उपस्थित रहते हैं ।
जब तक चित्त में तमोगुण-रजोगुणजन्य विकार उपस्थित रहते हैं तब तक इस प्रकार की गुमराह करने वाली सत्ताओं का जोर चलता रहता है । चित्त के चैतन्य भाग के आश्रय से देवता एवं अचैतन्य भाग के आश्रय से असुर क्रियाशील रहते हैं । आसुरिक-वृत्ति प्रेरणा करती हैछल-कपट करने के लिए, झूठ बोलने के लिए दूसरों का धन हड़प लेने के लिए, बेईमानों का प्रतिग्रह लेने के लिए, चरित्रहीनों का संसर्ग करने के लिए, विषयों में रमण करने के लिए। कामवासना को भड़काने के लिए साधक के मानस में नंग-धडंग स्त्रियों की आकृति को उभारना, चिर-परिचितों के रूपों को प्रकट कर कामुक चेष्टा दिखलाना- जैसे घृणित कार्यों को अंजाम देने में ये प्रतिक्षण सजग रहती है । साधक के मन में क्रोध उत्पन्न हो- इस हेतु वे मानस में वर्षों पुराने शत्रु-भाव को उभारती है । जिन घटनाओं को आप भूले हुए हैं जिनके स्थान और पात्र से भी पर्याप्त दूरी हो चुकी है- उन सभी स्मृतियों को जीवंत कर पुराने द्वेष-भाव, हिंसा,