हो । प्रेत प्राणशक्ति के आश्रय से किसी मनुष्य के गात में ठोर बनाते हैं। ये रक्त, वीर्य, मल-मूत्र, गूजू, नेटा आदि का सूक्ष्म भाग आहार के रूप में ग्रहण करते हैं । अत: प्रेत से प्रभावित व्यक्ति अपनी प्राणशक्ति में एकाएक हास का अनुभव करते हैं । अभिचारित प्रेत काल-विशेष में अधिक प्रभावी देखे जाते हैं । इसी कारण ऐसा भी देखा जाता है कि प्रेत किसी मनुष्य के शरीर में कुछ काल के लिए प्रवेश करता है और फिर वहाँ से हट जाता है। स्त्रियों एवं पुरुषों में प्रेत-आवेश के समय शारीरिक भाव-भंगिमा का परिवर्तन स्पष्ट लखा जाता है । कभी कमजोर व्यक्ति भी बलशाली के समान दुष्कर कार्य करते हैं तो बलवान व्यक्ति भी बलहीन होकर सर्वथा अशक्त दिखता है। कभी-कभी प्रेतावेश में मनुष्य की स्वाभाविक चेतना के बदले प्रेत की चेतना स्थापित हो जाती है । इस अवस्था में प्रेतग्रस्त मनुष्य के मुख से प्रेत अपनी व्यथा, इच्छा का कथन करता है। किसी व्यक्ति को यदि मरते समय में कुछ विशेष खाद्य पदार्थ खाने की इच्छा रह जाती है तो वह मृत्यु के बाद उसी वस्तु को खाने की इच्छा करता रहता है। यदि वह प्रेतदेह से अपने किन्हीं परिचित मनुष्य के शरीर में प्रविष्ट होने में सफल रहता है तो उसकी वाणी का प्रयोग कर अपनी अतृप्त इच्छा की पूर्ति करने की माँग करता है और मनोवांछित खाद्य ग्रहण करने पर संतुष्ट हो जाता है । किंतु यह संतुष्टि क्षणिक ही रहती है वह फिर उसी इच्छा के वशीभूत हुआ फिर अपनी माँग दुहराने लगता है। इसी प्रकार कुछ प्रेत किसी विशेष प्रकार की सामग्री का भोग किसी से बदला लेना चाहते हैं । गुह्यवादी ऐसे प्रेत को मंत्र शक्ति से बाध्य कर उसका परिचय प्राप्त करते हैं- अभिचारक की स्थिति का भी पता लगाते हैं । अभिचारित प्रेत किसी परिवार विशेष को भी प्रभावित करने की चेष्टा करते हैं । देखा जाता है कि एक ही परिवार में कई व्यक्ति प्रेतबाधा से ग्रस्त रहते हैं, सामुहिक रूप से किसी डरावने शब्द का श्रवण करते हैं, उनके घर में अपवित्र वस्तु या अन्य प्रकार के वस्तुओं का वर्षण होता है; अदृश्य व्यक्ति के चलने का स्वर या वस्तुओं का स्थान-परिवर्तन दिखलाई पडता है; भय, शोक, चिन्ता उत्पन्न करने वाले