अभाव हो जाये तो कोई भी जीव परमेश्वर के लिए, सत्य और न्याय के लिए, शुभ और शाश्वत के लिए त्याग-तपस्या, बलिदान और समर्पण नहीं करेगा । यदि परमेश्वर की शुचिता, निष्पक्षता, निष्कामता ही संदेह के घेरे में हो, उनकी उदारता, सर्वशक्तिमत्ता, भक्तवत्सलता पर ही प्रश्नचिह्न खड़ा हो जाय तो जीव के आध्यात्मिक उत्थान का क्या प्रयोजन रह जायेगा, उसके संयम-नियम की क्या आवश्यकता होगी ? अत: प्रत्येक दैव-रूप पवित्र वृक्ष, नदी, स्थल, ग्रंथ आदि श्रद्धाभूमि को ईश्वर विरोधी प्रेत प्रदूषित करने की चेष्टा करता है । साथ ही भक्त-हृदय में इन रूपों के प्रति उपस्थित श्रद्धा का दुरूपयोग भी करता है । जिन इष्ट-स्वरूप के प्रति साधक की श्रद्धा रहती है उन्हीं का रूप धरकर बिल्कुल उन्हीं के समान तेजवंत होकर, मधुर-आकर्षक वाणी में वो ऐसी बातें करता है कि साधक दिग्भ्रमित, हतोत्साहित, निराश, अवसादग्रस्त और विचलित हो जाये । यदि उपासक अपने ही इष्ट देवी-देवता के मुख से अपनी पारलौकिक दुर्गति की सूचना पाये तो उसकी हताशा की आखिर क्या सीमा हो सकती है ? बहुधा साधना-पथ पर ऐसे संकेत, शब्द एवं प्रतीक के द्वारा साधक को विचलित करने का प्रयास किया जाता है । प्रेत उसके पुरुषार्थ, लगन, उत्साह से संपन्न होने वाले प्रयास की निन्दा करता हैउसकी निरर्थकता और प्रयोजनहीनता की भविष्यवाणी की जाती है ताकि निराशा से वह साधना ही छोड दे। गलत मंत्र एवं उपासना पद्धति बताकर सत्य से भटकाने की चेष्टा प्रभावकारी ढंग से की जाती है । साधक जो कुछ भी पहले से अशुद्ध उपासना कर रहा होता है उसकी प्रशंसा और जो कुछ भी शुद्ध, पुण्यवर्द्धक साधना है उसकी निन्दा की जाती है ।
उपर्युक्त अवस्था में ऐसे साधक-साधिका के प्रभावित होने की अधिक संभावना रहती है जो अहकार के पोषण में रुचि लेते हैं । उच्च आध्यात्मिक लाभ की महत्वाकांक्षा एवं स्व-व्यक्तित्व के महिमामंडन की लिप्सा को आसुरिक आत्मा अपना हथियार बना लेती है । वह भगवान के रूपों का स्वांग कर आत्म-प्रशंसा के इच्छुक भक्तों की अति प्रशंसा करती है; उसके त्याग, तप को महान, अतुलनीय बताकर अन्य से उसकी श्रेष्ठता प्रमाणित करती है- उसे अति विशिष्ट व अन्य को अति