प्रवेश करते हैं तो अपने प्रभाव से उस देह को भी रोगी बना देते हैं । योगदृष्टि से ऐसे रोग-संवाहक प्रेतों को प्रारब्ध-प्रेरित अवधि तक सक्रिय देखा जाता है । जब किसी देह में इनका भोग खतम होता है तब ये प्रकट होकर अपना स्वरूप दिखलाते हैं। योगी मन को स्थिर करके विज्ञान-चेतना में उठकर इन सूक्ष्म सत्ताओं की करतूतों का अवलोकन करते हैं। अपनी मृत्युकालीन अवस्था के कारण ही सूक्ष्मजगत में प्रेत किसी रोग से ग्रस्त रहते हैं या शारीरिक अशक्यता से जूझते हैं। यदि किसी व्यक्ति का हाथ पृथ्वी पर कटा होता है तो मरने के बाद सूक्ष्मशरीर में भी उसका हाथ कटा ही रहता है । मरने के समय मनुष्य के शरीर पर जो भी वस्त्र, आभूषण रहते हैं वे सब प्रेत शरीर में भी पाया जाता है । बालक, युवा, वृद्ध, रुग्ण, स्वस्थ आदि अवस्था, मुखाव्कृति, हाव-भाव, स्वभाव-संस्कार में भी प्रेत मृत्युकालीन जीवन के समान ही दृष्टिगोचर होते हैं ।
सबकुछ समान रहते हुए भी पार्थिव जीवन और सूक्ष्मजीवन में एक बड़ा फर्क हो जाता है । इसका कारण मनुष्य के हृदय में स्थित रहनेवाले भगवान का अंगुष्ठमात्र दिव्य स्वरूप है । हृदय में बसनेवाले इस अन्त:पुरुष की उपस्थिति सूक्ष्म सत्ताओं में नहीं रहती है । हृदय-पुरुष के कारण ही मनुष्य की चेतना में सत्य स्वरूप भगवान के लिए खोज रहती है । वह नैतिकता, आदर्श, मर्यादा को धारण करने के लिए प्रवृत्त होता है । मनुष्य की अंत:प्रेरणा-का केन्द्रीय संस्थान हृदय-पुरुष ही है । इसी की अध्यक्षता में स्थूल भूत, इन्द्रिय, प्राण, मन, बुद्धि, अह आदि से संयुक्त प्रकृति मानव-जीवन की दिशा निर्धारित करती है । प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से मनुष्य की चेतना को भगवान की ओर मोडने में, उसे सुखद-दुखद स्मृतियों, संवेदनाओं-तृष्णाओं के कोलाहल से मुक्त कर शनै:शनै: विवेकशील, अंतर्मुखी, ध्यानपरायण भगवद्भक्त बनाने में हृदय-पुरुष की भूमिका रहती है । यदि हृदय-पुरुष की उपस्थिति मनुष्य के अन्तर में ना हो तो वह जीवन के उद्देश्य से विमुख हो जायेगा; किसी एक ही भावना, संवेदना, इच्छा में आसक्त हुआ पशु के समान स्वार्थी जीवन जियेगा; अपनी ही बुद्धि के द्वारा किस प्रकार हित साधन करे वह इस रहस्य को ना जान पायेगा । वह सदा बेचैन, प्रकृति के बाहरी आघातों को