की अपेक्षा से ही लिंग शरीर को सुख-दुख की प्राप्ति होती है । संस्कार कर्म एवं स्वभाव के विकार स्वरूप निर्मित होता है। मनुष्य मृत्युपर्यत कर्म में संलग्न रहता है । कर्म क्रिया मात्र नहीं है । यह त्रिगुणात्मक संकल्प एवं कामना से संयुक्त रहता है फलस्वरूप उसका परिणाम भी मात्र तात्कालिक नहीं होता अपितु कालान्तर में भी प्रकट होने योग्य होता है। इसी कारण से कर्म का मात्र स्थूल परिणाम ही नहीं होता अपितु सूक्ष्म परिणाम भी होता है- सरल फल ही नहीं उत्पन्न होता बल्कि जटिल फल भी उत्पन्न होता है । देश-काल-परिस्थिति की अपेक्षा से इच्छा, संकल्प, कामना, भावना के अनुसार ही पाप एवं पुण्य का निर्धारण होता है। साथ के भेद से भी प्रारब्ध जटिल बनता है; अवचेतन के गूढ़ संस्कार, सूक्ष्म गति एवं स्वभाव का निर्धारण करने में नीति-शास्त्र का निश्चित विधान काम नहीं आता है; हालाँकि चित्त की लयकालीन अवस्था अवश्य ही उसकी भावी परिस्थितियों का निर्धारक बनती है ।
यदि जीव का मरणासन्न चित्त तमोगुण की अधिकता से व्याप्त रहता है तो उसकी मरणोपरांत गति दुखद हो जाती है । तमोगुण के समान अनुपात में उसके प्रेतशरीर की आयु होती है । रजोगुण की अधिकता में जीव की प्रेत - आयु अल्प हो जाती है और वह पुन: पार्थिव जगत में मनुष्य देह को धारण करता है । सतोगुण के आधिक्य से भी जीव प्रेत देह से शीघ्रातिशीघ्र निवृत हो स्वर्गादि उध्र्वलोकों में देव-गन्धर्वादि उत्तम योनि की प्राप्ति करता है । इन तीनों गुणों से मुक्त प्राणी मुत्योपरांत उत्तरायण मार्ग से मुक्ति-धामों की ओर प्रयाण करने के लिए सूर्यमण्डल में प्रवेश करते हैं। मनुष्य रजोगुण प्रधान सृष्टि है। वह जन्म से मृत्युपर्यत रजोगुण की सक्रियता से चालित होता है- उसके चित्त में व्याप्त तमोगुण एवं सतोगुण का पूर्ण प्राकट्य मृत्योपरांत ही होता है । अत: सामान्यत: राजसिक कर्मों में लिप्त रहने वाला मानव मृत्योपरांत अपने चित्त में रजोगुण का प्राधान्य नहीं रख पाता है उसके अवचेतन का तमोगुण या सतोगुण प्रबलता से चित्त को प्रभावित कर देता है । चुंकि सात्विक संस्कार भी पृथ्वी पर विरले ही दृष्टिगत होते हैं अत: अधिकांश जीव