है उनमें प्रेतों के प्रभाव को सूक्ष्मद्रष्टागण स्पष्टतया अनुभव करते हैं। यदि कोई कुशल कारीगर, चित्रकार, संगीतकार, लेखक, कवि, नर्तक आदि है तो उसके मन-प्राण में समुचित गुण, भाव, कल्पना-कौशल को अन्त:प्रेरित करने में सूक्ष्मदेही सत्ता का व्यापक असर देखा जाता है । ये सत्ताएँ लोक-लोकान्तर से अपनी-अपनी प्रकृति को मत्र्य प्राणियों में प्रक्षिप्त करती रहती है । इस प्रक्रिया को हम प्रेतबाधा नहीं कह सकते हैं अपितु यह प्रेरणा का सहज प्रकृतिगत नियम है । प्रकृति विकास को साधित करने के लिए जिस प्रकार स्मृति, संस्कार, परिवेशजन्य संगति का इस्तेमाल करती है उसी प्रकार वह सूक्ष्मजगतको भाव, विचार, चेतना, हुनर, कला को पार्थिव प्राणियों में उत्पन्न करती है- इस क्रिया के लिए सूक्ष्मजगत के देव, गन्धर्व, यक्ष, नाग, असुर, राक्षस, पिशाच आदि अनेकानेक सताएँ क्रियारत रहती हैं। इन्हें मनुष्य अपने उद्देश्य, इच्छा, चेतना, ज्ञान के अनुसार शुभ या अशुभ प्रकृति का घोषित करता है । इस प्रकार की प्रेरणाओं को आम मनुष्य अंतर्दूष्टिविहीन होने के कारण देख नहीं पाते हैं यत्किचित ही अनुभव करते हैं कितु जिस व्यक्ति का चित्त सूक्ष्मात्माओं के प्रभाव को ग्रहण करने में जितना अधिक सक्षम होता है वह उतनी ही तीव्रता से उन-उन गुणों को आयत कर लेता है । सूक्ष्मतया देखा जाय तो मनुष्य का चित्त इस प्रकार की असंख्य प्रेरणाओं का क्रीडांगन है । उसके चित्त में सात्विक वृत्तियों को जगाने का प्रयास करते हैं तो असुर उसकी हरेक चित्तशुद्धिकारी साधना का विरोध करता है । इसी कारण से मनुष्य को किसी भी प्रकार के नवीन गुण को प्राप्त करने में संघर्ष करना पड़ता है। साथ ही, विषयी कामनाओं को चित्त में न पनपने देना भी एक कठिन कार्य बन जाता है ।
प्रेतदेह के निवासी या अन्य लोकस्थ सूक्ष्मदेही सत्ता पृथ्वी के मनुष्य, पशु-पंछी या पेड़-पौधों के चित्त को क्यों प्रभावित करते हैं ? क्यों इनके आश्रय में निवास करते हैं ? इनके चित्त में निज समर्थित वृत्तियों को उकसाने की चेष्टा में सदैव किसलिए प्रयत्नशील रहते हैं ? इन सब जिज्ञासाओं का समाधान इन सूक्ष्मात्माओं की प्रकृति को पढ़ने से ही प्राप्त