पृष्ट संख्या 41

आग की कई भट्ठियाँ जलती रहती है जिसमें नक का त्रास भोगा जाता हैं। सूक्ष्म जगत के यात्री-योगी की सहानुभूति पाने के लिए दंड भोगते प्रेत उन्हें अपनी स्थिति से रूबरू कराते हैं । तेल जैसा चिपचिपा द्रव कुड में खौलता रहता है- तेज वाष्प निकलता रहता है जिसमें दण्डनीय आत्मा को ढकेल दिया जाता है। कुछ कुंड ऐसे हैं जिसमें खतरनाक बिच्छू एवं अन्य कीट का दंश कहर बरपाता रहता है । नदियों में भी ऐसे-ऐसे विषैले बिच्छुओं का साम्राज्य है जो स्पर्श मात्र से भयंकर पीड़ा उत्पन्न करता है। जिस प्रकार पृथ्वी पर सागरों में हिमखंड प्रवाहित होता रहता है उसी प्रकार नक की नदियों में विष्ठा का बड़ा-बड़ा खंड प्रवाहित होता रहता है । स्थल पर भी विष्ठा से आच्छादित बहुत बडा भू-भाग रहता है जिसमें नारकीय आत्मा निवास करती है । कहीं भयंकर शीत तो कहीं भयंकर ताप से अधोगति को प्राप्त आत्मा व्यथित होती रहती है । इनके सुख का साधन काम-मात्र है। प्रेत पुरुष भी होते हैं और स्त्री भी । इनके बीच काम-संबंध नैतिकता, मर्यादा और मानवीय आदर्श का किंचित भी परवाह नहीं करता है । समलैंगिक या विषमलैंगिक काम-क्रिया का प्रदर्शन नक में खुल्लमखुल्ला होता रहता है । अध्यात्म-पथ से साधक को विमुख करने में शैतानी शक्ति (Devil Power) का सबसे बड़ा अस्त्र तो कामवासना ही है । योगी के चित्त में काम विकार पैदा करने के लिए प्रेतों का समूह हरसंभव प्रयास करता है । सूक्ष्म जगत की एक से एक सुन्दरी अपनी मोहक अदाओं का जाल फेंकती हैं । जो अपने असली स्वरूप में वीभत्स, कुरूप और भद्दा है वह भी अतिशय मधुर, आकर्षक, भव्य बन कर प्रकट होता है । पल-पल। छलने, प्रवंचना करने, गुमराह करने की तत्पर ये पतनकारी प्रेत यदि साधक के मन में विकार उत्पन्न करने में सफल नहीं होते हैं तो उसके दृष्टिपटल के सम्मुख कभी योनि एवं लिंग का घृणास्पद दृश्य दिखलाते हैं तो कभी नृत्य, हास्य आदि में कामोन्मत्त हुए परििचत–अपरििचत रूप का स्वांग कर भरमाने की कोशिश करते हैं। कभी-कभी साधक को दिग्भ्रमित करने के लिए स्त्री-प्रेत पुरुष का रूप धरकर प्रकट होती है । समलिंगी का रूप धरे हुए ही सूक्ष्म आत्मा कामवासना को भड़काने की चेष्टा करती है । इसी प्रकार,


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