पृष्ट संख्या 52

भोग-विलास में आजन्म रत रहनेवाले, अविवेकी, तपहीन, अमर्यादित मनुष्य हैं उनके लिए अपने शरीर से निकलना बड़ा भयावह होता है । वे अपनी गति के प्रति सुनिश्चित नहीं होते हैं । वे शरीर छोड़ना ही नहीं चाहते हैं। जब सूक्ष्मशरीर में उनकी सारी वृत्ति संकेन्द्रित हो जाती है और उनकी सत्ता स्वयं को स्थूल शरीर से अलग पाती है तो आश्चर्यचकित रह जाती है । अपने आप को ही मरा देख और परिजनों को विलाप करते देखकर मृत आत्मा विस्मित रह जाती है । वह चाहती है कि पुन: अपने स्थूल शरीर में प्रवेश कर जाये और विलाप करते हुए कुटुम्बों को सुखद आश्चर्य प्रदान करे किंतु वह अपने आप को पुन: शरीर में टिका नहीं पाती है । यदि मृतक का सूक्ष्मशरीर अपने स्थूल देह के कर्ण, नासिका आदि किसी छिद्र से शरीर में प्रविष्ट होता है तो अगले ही क्षण किसी दूसरे छिद्र से निकल जाता है। शरीर से निकल कर पुन: प्रवेश कर जाने की विधा तो हृदय-पुरुष के पास रहती है- इनसे संबंध जोड़कर योगिजन भी परकाया प्रवेश या स्वकाया छोड़ने की विधि से अवगत रहते हैं किंतु जो अपने जीवन में आत्मज्ञान प्राप्त नहीं कर सके हैं, प्रकृति को ही सर्वस्व मानने वाले मूढ़जन हैं वे अपने शरीर की हानि से अति दु:खी, परेशान होते हैं । वे अपने शव को जलाने या गाड़ने के लिए ले जाते हुए संबंधियों को बार-बार रोकने की चेष्टा करते हैं । उन्हें यह उम्मीद रहती है कि वे अगले ही क्षण इस शरीर में प्रवेश कर जीवित हो उठेगे । किंतु उनकी सूक्ष्म वाणी को मनुष्य कहाँ सुन पाता है ! उनके स्पर्श का बोध स्थूल शरीर में संभव नहीं होता- फलत: प्रेत शरीर में वायु की भाँति लहराते, इधर-उधर डोलते वे अपने शरीर का अंत देखकर निराश हो उठते हैं । वे उन-उन स्थानों पर जाते हैं जहाँ उनकी भावना, संवेदना जुड़ी रहती है ; उन-उन व्यक्तियों के पास जाते हैं जिनसे भावनात्मक संबंध जुड़े हैं । सूक्ष्म शरीर से वे अपने घर-आँगन के इर्द-गिर्द मैंडराते हैं और अपने प्रति मानवों के स्नेह की माप-तौल करते रहते हैं । सूक्ष्मशरीर में भाव की तीव्रता बहुत अधिक होती है । जैसे मनुष्य स्वप्न में सुख या दुख की गहरी संवेदना अनुभूत करते हैं उसी प्रकार सूक्ष्मशरीर का हर्ष-शोक मनुष्य शरीर की अपेक्षा कई गुना अधिक होता है । जब


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