स्थूल या सूक्ष्म देह का निर्माण होता है- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु एवं आकाश । इसके अतिरिक्त मन, बुद्धि, महतत्व एवं अव्यक्त (मूल प्रकृति) मिलकर जीव के चौबीस तत्व हैं । इन सबसे परे है पच्चीसवाँ तत्व- पुरुष जो पिंड में निवास करता हुआ भी पिंड से वैसे ही अलग * के संयोग से क्षेत्र एवं क्षेत्रज्ञ अस्तित्ववान हैं । पाँच महाभूत, अहंकार, बुद्धि, अव्यक्त, दस इन्द्रियाँ, एक मन, पाँच इन्द्रियों के विषय, इच्छा, द्वेष, सुख-दु:ख, स्थूल शरीर, चेतना और धृति- यह विकारों सहित क्षेत्र है सतीगुण । ये अव्यक्त के आश्रित हैं । यही चित्त का मूल स्वरूप है । अन्त:करण चतुष्टय- मन, बुद्धि, अहंकार एवं चित्त की उपाधि से युक्त पुरुष 'जीव' कहलाता है एवं इन उपाधियों से मुक्त होने पर 'ब्रह्म' कहा जाता है जो सबका कारण है । इसी निरूपाधिक तत्व का साक्षात्कार 'ज्ञान' है एवं उपाधि रूपी विकारों से बद्ध संस्कार 'अज्ञान' है । सृष्टिचक्र में जबतक जीव अपने अन्त:करण के युक्त रहता है तबतक वह अनेकानेक योनियों के देह को धारण करता रहता है- कर्मबंधन और स्वभाव-संक्रमण से आक्रान्त हुआ प्रकृति पराभूत रहता है । जीव के इन्द्रिय एवं अन्त:करण के स्वभाव उसकी मूल प्रकृति के तीन गुणतमोगुण, रजोगुण एवं सतीगुण की विशेषता से अत्यधिक प्रभावित होते हैं। स्थूल देह के व्यजन-काल में जिस गुण की वृत्ति प्रधान रूप से चित को प्रकाशित किये रहती है उसी गुण के अनुरूप उसका लिंग शरीर निर्मित होता है । यदि मृत्युकाल में सात्विक गुण (दैवी संपदा) का * अभाव रहता है तो जीव की पारलौकिक गति सुख से रहित, क्लेशपूर्ण हो जाती है । जीव का स्वभाव यदि काम, क्रोध, लोभ, मोह, मत्सर, मदादि से प्रभावित हुआ किसी विशेष प्रकार की कामना के प्रति लोलुप, क्षुब्ध, चिंताग्रस्त, आसक्तमना, चंचल, शोकाकुल, भयभीत हो; राग-द्वेष, घृणा के आवेग से आवेशित, उग्र, उन्मादग्रस्त, दूसरों की बुराई का आकांक्षी, अभिमानी, स्वार्थकेन्द्रित फलत: अशांत, द्विविधाग्रस्त हो तो वह मृत्योपरांत इन भावों से भावित हुआ अपने प्राणिक-मानसिक आवेग-संकल्प