पृष्ट संख्या 56

क्रोध, ईष्या-द्वेष को बढ़ावा देता है, अहकार पैदा करता है । अहभाव को बढ़ाने वाला असुर साँढ़ के रूप में भी है । ये धर्म का, पुण्य का अहकार उत्पन्न करते हैं । कोई-कोई मनुष्य भगवान की अहकार के प्रदर्शन ही करते हैं । वे पूजा के नाम पर दम्भ करते हैं। यह आसुरिक भाव है । ऐसा भाव कामनापूर्ति ना होने पर भगवान से द्वेष ही करने लगता है। अपने सदाचरण, तपाचरण, पुण्याचरण के बल पर ये स्वयं को अतिमहान और दूसरों को तुच्छ समझते हैं। इसी अहकार से उनके मन में अन्य के प्रति घृणा का भाव उत्पन्न होता है । बकरा के रूप में असुर घिनौना विचार उत्पन्न करता रहता है। पाखण्ड, कपट का आश्रयी चित आसुर-भाव से भावित होता है । असुर मनुष्य को अपनी विशालकाय आकृति, शक्ति से भयभीत करते हैं। हाथी के रूप में असुर भय उत्पन्न करता है । मनुष्य शरीर में भिन्न-भिन्न बिन्दु पर अलग-अलग आसुरिक वृत्तियों का केन्द्र रहता है । इन केन्द्र विशेष को संवेदित कर ये । मनोवांछित वृत्तियों को उभारने में सफल रहते हैं। चुंकि असुर पुण्य भी करते हैं एवं पाप भी इसीलिए पाप-पुण्य की अधिकता से इनकी शक्ति एवं तेजस्विता में अंतर आता है । कुछ असुर पुण्य के बल पर विशेष शक्ति संपन्न होते हैं एवं वरदान देने की भी क्षमता रखते हैं । जब आसुरिक कामना-लालसा वाले व्यक्ति तपस्या करते हैं तो उनकी तपस्या, उपासना को ऐसे असुर ग्रहण कर लेते हैं और बदले में उनकी मनोवांछित कामना, आर्ति का नाश करने वाले सिद्ध असुर शुभाशुभ की भविष्यवाणी भी करते हैं। अपने-अपने तेज, बल के अनुसार इनकी भविष्यवाणी होती है। कुछ असुरों की भविष्यवाणी सही नहीं होती है, कुछ की सही होती है । कुछ असुर दुष्ट स्वभाव से प्रेरित होकर भरमाने की चेष्टा करते हैं। झूठी प्रशंसा और महिमा स्तुति कर ये मनुष्यों को छलते हैं । असुर स्वयं को भी भगवान के रूप में प्रस्तुत कर साधकों को झूठा आश्वासन देते हैं । ये असत्य के उपासक हैं । इनकी उपासना करने से पुण्य का नाश ही होता है क्योंकि ये पुण्यभाग ग्रहण कर ही कुछ भी कामना-पूर्ति का वर देते हैं। कभी ये तारा के समान तो कभी चन्द्रमा या सूरज के समान


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