पृष्ट संख्या 43

दुष्टात्मा कहती हे - " ये पाप हुआ" ताकि वह विकारी मनुष्यों के संग को ही सबसे पुण्यवर्द्धक कार्य समझे । साधक की अधोगति के आकांक्षी दुष्टात्माएँ उन्हें पापी मनुष्यों के अन्न को ग्रहण करने के लिए उकसाती है । ऐसे दूषित अन्न को वह पवित्र कहती है । यदि साधक द्वारा एक चींटी भी मारी जाती है तो दुष्टात्मा उसके इस पापकर्म से प्रसन्न हो जाती है । दुष्टात्मा सदैव इस बात का नाप-तौल करती है कि कोई मनुष्य कितना पाप और कितना पुण्य करता है। यदि कोई पुण्यवान थोड़े ही पाप कर्म में लिप्त होता है तो उसे इस बात का मलाल रहता है कि वह इतना पाप ना कर सका कि उसका परलोक बिगड जाये । साधक की तपस्या और कष्टसहन से जब उसकी पाप-राशि जलती रहती है तो प्रेतों को निराशा होती है । वह साधक की तपस्या ना करने की सलाह देता है । इसके लिए वह तक देता है कि आखिर भगवान को इतनी सारी कुर्बानी देने के बाद भी जब साधक को क्लेश उठाना पडता है तो भगवद्भजन से क्या लाभ है ? यदि साधक भगवान को छोडकर उसका कहा माने तो वह सुखपूर्वक जीवन जी सकता है । न तो उसे कोई शारीरिक रोग रहेगा न मानसिक क्लेश और न ही आर्थिक तंगी । साधक को ऐसा प्रस्ताव देने के लिए इन शैतानी रूहों का स्वामी भी आता है जिसका बल अपार है। दुष्ट स्वभाव वाले प्रेतों का अपना साम्राज्य है- उनके सरदार और राजा हैं- उन शक्तिशाली असुराधिपतियों का किला से घेरा हुआ राजप्रासाद है। इनमें जीव को अपने सौन्दर्य से मुग्ध कर देने वाली 'काम की पुत्रियाँ' निवास करती हैं जिनकी रक्षा में सहस्त्रों सैनिक नित्य तत्पर रहते हैं । इनके सुरक्षित दुर्ग में आकाश मार्ग से प्रवेश करते अन्य लोक की आत्मा को तीक्षण आघातों का सामना करना पडता है । काल या स्थान विशेष में प्रेत स्वतंत्र रमण करते हैं एवं इनके स्वतंत्र रमण में हस्तक्षेप करना इन्हें तंग करने हेतु निमंत्रण देना है । अत: मनुष्य को चाहिए कि वह यदि किसी प्रेत को कहीं गमन करते, क्रीडा करते, रोते, गाते, समूह में उत्सव मनाते, एकांत में बैठे या अन्य कार्य में संलग्न देखे तो उससे पहले बातचीत ना करे । उसे व्यर्थ का टीके नहीं । संभव है कि प्रेत अपने रास्ते से कहीं चला जाय, अपने काम में मग्न हो किंतु यदि आप उसे टोकते हैं


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