पृष्ट संख्या 12

हेय साबित कर वो मद, द्वेष, घृणा, आदि पतनकारी वृत्ति को बढ़ावा देती है । यदि इन शैतानी-कुचक्रों का दैव-सत्ता द्वारा परिहार न किया जायआध्यात्मिक शिखर पर आरूढ़ गुरू के निर्देशन में न रहा जाय तो योगच्युति या साधना क व्यतिक्रम का व्यवधान अपरिहार्य रूप से उपस्थित हो जाता है । चूँकि इस प्रकार की बाधाएँ उत्पन्न करने वाले प्रेत बहुत ही अधिक शक्तिशाली होते हैं, भिन्न-भिन्न प्रकार के रूपों के स्वांग करने में दक्ष, नाना प्रकार के शास्त्रों, मंत्रों, भाषाओं, कलाओं के जानकार होते हैं; पाण्डित्यपूर्ण, धीर-गंभीर, आकर्षक बोली में बोलनेवाले होते हैं अत: इनके रहस्य का भेद पाना साधकों के लिए अति कठिन है। वे इस रहस्य से अनभिज्ञ रहने के कारण ही भागवत-निर्देशित कर्म के नाम पर अनर्थकारी कार्य कर बैठते हैं । ऐसा संभव है कि भगवान की आकृति में भक्त को भगवान का दुर्लभ प्रेम और शाश्वत लोक की प्राप्ति का आश्वासन मिले बशर्त कि वो तत्क्षण ही देह का त्याग करे । इस प्रकार को प्रलोभन का प्रयोजन साधक का प्राण–हरण ही होता है । अपनी विद्वतापूर्ण वाणी से नाना प्रकार के सिद्धांतों, सूत्रों की व्याख्या कर प्रेत साधक के मस्तिष्क को अपने प्रति श्रद्धा रखने के लिए संतुष्ट कर देता है कितु इन सब चमत्कारिक प्रदर्शन में छुपे विश्वासघात, छल-कपट को कोई विरले जिज्ञासु ही जान पाते हैं । कई साधक इनका पूर्ण परिचय धोखा खाने के बाद ही जान पाते हैं । इसी प्रकार संभव है कि साधक के मन को दिग्भ्रमित करने के लिए उसे नाना प्रकार की सिद्धियों एवं मोक्ष का आश्वासन दिया जाय जिसके फलस्वरूप साधक स्वयं को अतिविशिष्ट या ईश्वर ही समझने का गुमान करने लगे । साधना-मार्ग में उक्त प्रकार की बाधाओं का शमन अपने अहकार को मिटाने से ही संभव है । यदि इन सब मिथ्यानुभूतियों से मन में अहंकार, मद, मान की भावना आ जाती है तो उसका पतन हो जाता है, भगवान उससे दूर चले जाते हैं। भगवान से दूरी बढ़ाने के लिए भागवत-विरोधी स्वभाव के प्रेत भक्त के हृदय में विविध प्रकार की लौकिक इच्छाओं को उभारता है । इसके लिए वह स्वयं का या अन्य श्रद्धेय साधु-संतों की आकृति का स्वांग रचता है । इन रूपों में प्रकट होकर वह साधक-साधिका के मन को


© Copyright , Sri Kapil Kanan, All rights reserved | Website with By :Vivek Karn | Sitemap | Privacy-Policy