दीन-हीन, नंग-धडंग, भूखा-प्यासा, उदास-हताश देखते हैं; उनकी आकृतियों को पशु-पंछी के रूप में परिणत होते देखते हैं: उनके संगठन और उपद्रवकारी कायों को देखते हैं तो वे इस तथ्य से भली भाँति अवगत होते हैं कि सृष्टि में दो ही प्रकार के प्राणी है- एक दैवी दूसरे आसुरी । दैवीय प्रकृति के प्राणी ही एक-दूसरे के सहायक होते हैं । एक सद्गुण संपन्न सदाचारी मनुष्य मरणोत्तर जीवन में अपने उन पार्थिव कुलोद्भवों से कुछ भी सहायता नहीं पाते हैं जो आसुरी-स्वभाव को धारण किये हुए हैं । इसी प्रकार एक आसुरी स्वभाव के प्राणी अपने दैवीय सम्पत् युक्त पूर्वजों का अनुग्रह नहीं प्राप्त कर पाते हैं ।
सूक्ष्मजगत की वही सत्ता मनुष्य के लिए पूजनीय है जो कम से कम तामसिक-राजसिक गुणों के कोलाहल से मुक्त हो गयी है। जिन्होंने मनुष्य शरीर के रहते ही सत्य, ब्रह्मचर्य, अस्तेय, क्षमा, दया, तप, त्याग, ज्ञान-वैराग्य, अहिंसा आदि दैवीय गुणों को धारण कर लिया है; जिनके है; जो देव, गन्धर्व, नाग, सिद्ध आदि लोकों के देवता बने हैं या जिन्होंने पूर्णरूप से आत्मतत्व का साक्षात्कार कर 'ब्रह्मत्व' का वरण किया है, ऐसे मनुष्य ही मरणोत्तर जीवन में सूक्ष्मजगत की दिव्य कल्याणकारी भूमि में निवास करते हैं । इन्हीं की उपासना से उपासक का सर्वतीरूपेण कल्याण साधारण प्राणी हैं वे यदि देहत्याग करते हैं तो उनकी उपासना करना मनुष्य के लिए हितकर नही अपितु अहितकर ही है । जो स्वयं सूक्ष्मलोकों के प्रकाशविहीन क्षेत्रों में निवास करते हैं; जिनके चित्त में तमोगुण एवं रजोगुण के विकार भरे पड़े हैं, जो बहुविध कामना, शंका, लालसा, वासना से प्रभावित हुए आवेशित, उद्विग्न, क्षुब्ध, लोलुप, चित्त वाले हैं वे हमारे कितने भी श्रद्धेय व स्नेही क्यों न हों पर हमारे उन्नयन में सहायक नहीं हो सकते हैं । ऐसे मृतक की आत्मा अपने कुलोद्भव उपासक की उपासना ग्रहण कर उसके गात में ही ठौर बना लेते हैं और उसे गंभीर रोग, व्याधि, मानसिक चिन्ता, क्लेश से व्यथित कर अशान्त, अस्थिर और अकुशल करने का उद्योग करते हैं ।