पृष्ट संख्या 55

मूलाधार एवं स्वाधिष्ठान चक्र पर तो इनका क्षेत्र है ही ये किसी भी चक्र पर आवागमन कर सकते हैं। ये मात्र भूततत्व एवं प्राणतत्व पर ही अधि कार नहीं रखते हैं अपितु मन, बुद्धि, अह आदि उच्चतर तत्वों को अपनी दुष्प्रेरणाओं से असत्य आचरणी कर सकते हैं । अन्तिम रूप से ब्रह्म अग्नि में ही इनका समूल नाश होता है । किन्तु ये रक्तबीज की संतान हैं । प्रत्येक प्राणी के प्राण से पोषण पाकर वृत्ति रूप में जीवित रहती है। अत: प्रत्येक मनुष्य को निर्वाण प्राप्ति के क्रम में इन दुष्ट वृत्ति स्वरूप अधम सत्ता को पराभूत कर इनसे मुक्त होना होता है। दुष्टात्माओं के अनेकविध स्वरूप हैं । इनमें कुछ मनुष्य की तरह तो कई का वेषभूषा और आकार-प्रकार अजीबोगरीब है । वीभत्स, घृणास्पद, कुरूप, भयावह चेहरे वाले एक से एक भीमकाय दुष्टात्मा में सर्वाधिक शक्तिशाली है असुर । योनियों में होता है । हाथी, घोड़ा, बैल, साँढ़, बकरा, गदहा, भैंसा, साँप, गाय आदि नाना पशु रूपों में असुरों का साम्राज्य फल-फूल रहा है । ये अपने विषय-भोग के लिए तपस्या का अवलंबन लेते हैं । इनकी पूजा-उपासना को ग्रहण करनेवाले देवी-देवता हैं जिनके लिए इन्होंने अलग-अलग धर्म-सम्प्रदाय का उपासना-स्थल बना रखा है । ये धर्म, तप का अवलंबन लेकर पुण्यकार्य कर पहले शक्ति संपन्न बनते हैं फिर अपनी नाना प्रकार की कामनाओं का भोग करते हैं। इनमें लोभवृत्ति की प्रधानता होती है । प्रकृति द्वारा प्रदत्त शक्तियों का ये स्वार्थ में उपभोग करते ही हैं साथ ही जो शक्ति-सामथ्र्य इन्हें नहीं प्राप्त है उसे भी प्राप्त करने के लिए बलात् प्रयास करते हैं। इन्हें ही वेदों में गौ रूपी सद्वृत्तियों का लुटेरा कहा गया है । जब मनुष्य तपस्या कर चित्तशुद्धि का प्रयास करने लगता है तो ये चित्त में प्रकट होकर अनेकानेक कामनाओं को जगाने लगते हैं । जब मनुष्य की कामना पुण्यकार्य के फलस्वरूप तुष्ट होने लगती है तो ये चित्त में प्रकट होकर अहंकार, बड़प्पन की भावना उत्पन्न करने लगते हैं। जब कोई प्राणी सफलता, ऐश्वर्य से भरपूर होने लगता है तो असुर उससे डाह कर परिवेश में अन्य व्यक्तियों के अन्तस को ईर्ष्या - द्वेष, डाह-जलन से दग्ध करते रहते हैं। साँप के रूप में असुर


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