पृष्ट संख्या 5

का रूपायण हो जाता है | वह अपनी वृत्ति के वातावरण में निवास करने को बाध्य होता है । उसकी मृत्युकालीन वृत्ति ही उसकी सूक्ष्म देह का निर्माण करती है । जबतक इन अशुद्ध, विकारी, आवेगी वृत्ति की प्रबलता । सूक्ष्म देह को आवेशित किये रहती है तबतक जीव का मन, प्राण आदि के स्थायी लोक एवं शरीर में निवास करना संभव नहीं होता है । इसीलिए इस अवधि को भटकनेवाली अवधि कह सकते हैं । इस काल में जीव अपने पूर्व के अभ्यास, संस्कार, चेष्टा, आदत, लत, कामना, संकल्प से चाहकर भी पीछा नहीं छुड़ा पाता है । वह उन-उन जगहों पर टिकना चाहता है जहाँ उसकी स्मृति जुड़ी रहती है, उन-उन काल को फिर से जीवंत करना चाहता है जिस काल में उसका पहले वाला जीवन बीता होता है कितु उसके लिए ये सब प्रक्रियाएँ आसान नहीं होती हैं । चुंकि वह स्थूल देह से अलग रहता है अत: सरलता से भौतिक स्पशों को प्राप्त नहीं कर पाता है । भौतिक विधान के अन्तर्गत उसके लिए हर एक जगह, काल और पात्र में हस्तक्षप करना संभव नहीं हो पाता है । अत: प्रेतदेह का अनुभव भौतिक जगत में भी सामान्य नहीं है । सभी भौतिक प्राणी प्रेत को देख नहीं पाते उनकी वाणी सुन नहीं पाते- ऐसा करने वाले विरले ही हैं ।


सूक्ष्मदेही सभी के सामने स्वयं को प्रकट नहीं करते हैं- विशेष लक्षणों से युक्त मनुष्य ही उनके प्रत्यक्ष स्पशों को ग्रहण करते हैं। जिनके पवित्र आचरणी हैं वे अपनी अंतर्दूष्टि के विकास से शुभ-अशुभ प्रकृति - वाले सूक्ष्मदेही की अनुभूति करते हैं। साथ ही जो मनुष्य तामसिक-राजसिक वृत्ति के आवेगों से ज्यादा प्रभावित होकर किसी विशेष प्रकार की कामना-पूर्ति हेतु उत्कठित, व्यग्र, उन्मादी, विषादग्रस्त, तनावयुक्त होते है; जो काम, क्रोध, मोह, लोभ आदि निकृष्ट वासनाओं में अतिलिप्त होकर अपवित्र जीवन जीते हैं- वे भी इन सूक्ष्म सत्ताओं के प्रभाव को ग्रहण करने वाले उपयुक्त पात्र बन जाते हैं । वस्तुत: सम्पूर्ण मानवजाति प्रेत के अप्रत्यक्ष प्रभाव से प्रभावित होती है । उनकी अच्छी-बुरी वृत्तियों के संग प्रेत भी रमण करते हैं। पृथ्वी पर मनुष्य जिस किसी भी हुनर में दक्ष होता


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