किकर्तव्यविमूढ़ हुआ सहता रहेगा- उसे अपने आत्मज्ञान, आत्मिक शांति और ज्योति का पता ही मालूम नहीं होगा । हृदय पुरुष ही मनुष्य की चेतना को भगवान के दिव्य, चिन्मय, सर्वव्याप्त महान चेतना से जोड़ते हैं। यदि हृदय में ये भगवद्ज्योति का आह्वान न करें तो मनुष्य की कोई भी उपासना, तपस्या, भगवान तक नहीं पहुँच सकती है । उन्हें हमारे मन, प्राणादि के शुद्ध-अशुद्ध देव ही ग्रहण करेंगे । यही हृदय-पुरुष पार्थिव जीवन को देवताओं के लिए भी काम्य बना देते हैं। पृथ्वी लोक के ऊपर सूक्ष्मजगत के स्वर्गीय लोक में निवास करनेवाले देवताओं को हालाँकि मनुष्य से अधिक बहुत कुछ प्राप्त है उनकी शक्ति, तेज, बल, आयु, आरोग्य, ऐश्वर्यादि निधि मनुष्य से बहुत अधिक बढ़ी-चढ़ी है कितु उन्हें भी इन दिव्य हृदय-पुरुष का संयोग नहीं प्राप्त है । वे भी पृथ्वी पर देह धारण कर भगवत् सान्निध्य की आकांक्षा करते हैं। किंतु मनुष्य स्वयं अपने भीतर मौजूद इस अनमोल खजाने से अनभिज्ञ रहता है । बहुत कम ही मनुष्य अपने इस अंतर-स्थित देव से परिचित होते हैं और उनका अनुसंधान कर आदेश-पालन करते हैं । ज्यादातर मनुष्य अपने मन-प्राण की भावनाओं, इच्छाओं, लालसाओं में ही रमे होते हैं- वे अपने बहिर्मुखी जीवन में ही सुख खोजते हैं । फलत: उनके लिए आनंद, शांति, चेतना, मुक्ति का सूत्र छूट जाता है और मरने के बाद वे शोचनीय स्थिति को प्राप्त हो जाते हैं । मृत्यु के समय चित्त वृत्तियाँ, मन, इन्द्रियों के सूक्ष्म स्वरूप के साथ प्राण में लय होती है और जीव पाप-पुण्य के कर्मानुसार दुखद-सुखद लोक को प्राप्त करता है । उसके हृदय-पुरुष अपने दिव्य लोक को गमन कर जाते हैं । चूँकि मरने के कुछ काल पहले से ही आन्तरिक प्रलय की क्रिया शुरू हो जाती है अत: मृत्यु काल में किया गया उद्धार का प्रयास प्राय: व्यर्थ ही होता है। जब मरण शैय्या पर पड़े व्यक्ति को राम नाम लेने के लिए कहा जाता है तो वह ना तो कुछ कहने योग्य रहता है और ना ही सुनने योग्य । यदि उसकी आँखों के सामने भगवान का चित्र ही दिखाया जाता है तो वह उस चित्र को देखने की इच्छा करता हुआ भी देख नहीं पाता है । उसकी इन्द्रियों की शक्ति क्षीण हो जाती है। वह मन के द्वारा भी स्मरण-ध्यान करने योग्य नहीं रहता है क्योंकि