हैं । अपने मानुषी-जीवन के चारित्रिक दोष या प्रकृतिगत अशुद्धि के कारण वे उध्वलोकों में आरोहण नहीं कर पाते हैं। अध:श्लोक में प्रताड़ना को नवागंतुक आत्मा सह नहीं पाते हैं । वे अपने परिवेश में प्रकटे विजातीय द्रष्टा परिचितों से सहानुभूति पाने हेतु कहते हैं- 'यहाँ की वेदना को तुम क्या समझोगे । यहाँ हमें प्रताडित किया जाता है ।' मनुष्य जाति की कल्पना से परे- कभी शिरच्छेदन तो कभी भाला-बछों का सर्वाग प्रहार; कभी आरी-पत्ती से टुकड़े-टुकड़े में काट दिया जाना, तो कभी जलते अंगार में तड़पने के विवश करना- ये सब घटनाएँ तो सूक्ष्मलोक की सामान्य दण्ड-संहिता में अदृष्ट के इशारे से होती ही रहती है तथा इससे भी बडी यंत्रणा जिसकी कल्पना भी शैतानी मस्तिष्क ही कर सकती है, नक का सदैव जीवंत सत्य बनी रहती है । गन्दे नालों में, विष्ठा कुपों में, रक्त-कुंडों में कीड़े-मकौड़े की तरह बजबजाती हुई असंख्य प्राणदेही आत्मा को प्रेत-जीवन में कहीं भी सुख नहीं मिलता है। कभी वे गन्दे नाले से निकलकर अपने पूर्व के मानुषी जन्म की आकृति में आती भी है तो तत्क्षण ही वह फिर से पिल्लू बन जाती है । योगी की सहानुभूति को पाने के लिए नक में तड़पती आत्मा उसे अपने विगत जन्मों के संबंध की याद दिलाती है कितु वहाँ पार्थिव जगत के संबंध का आखिर क्या महत्व है ? जो प्रेत कुछ ही देर पहले याचक की मुद्रा में अपने उद्धार की आशा लगाये रहता है वही प्रेत स्वार्थपूर्ति ना होने पर अगले ही क्षण उसपर आघात करने लगता है । अंधकार के राज्य में प्रेतदेह से नानाविध विकर्मों का भोग करते हुए अपने असंख्य परिचितों के हश्र को देखकर योगिजन उदासीन हो जाते हैं। जब तक मनुष्य पृथ्वी पर निवास करता है तभी तक वह किसी का पिता-पुत्र, सखा-सहेली है। एक बार जब वह स्थूलदेह का त्याग कर सूक्ष्म शरीरधारी हो जाता है तब फिर वह किसका पिता और किसकी माता है ? फिर तो पह अपनी ही गति के अवलोकन में व्यस्त हुआ जीवन के गुप्त रहस्यों से आश्चर्यचकित हो अवगत होता रहता है । योगिजन जब सूक्ष्मजगत में अपने कुटुम्बियों को देखते हैं तभी मोह मुक्त होते हैं । योगिजन जब अपने ही कुल के सदस्यों को, मित्रों, परिचितों को सूक्ष्मजगत में