पूजा करना कर्तव्य कर्म नहीं है । द्रष्टागण यह अनुभव करते हैं कि प्रेत को श्राद्ध, तर्पण आदि पितृ-कर्मों से लाभ पहुँचता है । इनसे उन्हें अत्यधिक त्रास के क्षणों में कुछ आराम मिलता है । प्रेत के निमित्त जब आनुष्ठानिक श्राद्धकर्म से प्रेतदेही लाभान्वित होते हैं । किंतु पाप की प्रचुरता के कारण प्रेत अध्य-प्राप्ति से वंचित भी हो जाते हैं । ऐसे मृतकात्मा जो काल-विशेष तक पितृलोक जाने के अधिकारी नहीं होते हैं, जिन्हें पार्थिव अध्य नहीं मिलता है, जो सूक्ष्मजगत में दुखी, बुभुक्षित, त्रस्त जीवन जीते हैं वही प्रेत बने भटकते हुए, दुष्ट सत्ता बनकर मनुष्य को तंग करते हैं । किन्तु यदि किसी भी कुल के संततिगण अपने पितरों को पितृ-पक्ष में या उनकी पुण्यतिथि पर अध्य प्रदान नहीं करते हैं तो पितृ भूख-प्यास से व्याकुल हो जाते हैं । स्वप्न में या प्रत्यक्ष होकर ये अपने कुलोद्भवों से अन्न, जलादि की माँग भी करते हैं जिसकी परिपूर्ति नहीं होने पर ये कुद्ध हो जाते हैं । अपनी संततियों के द्वारा उपेक्षा, उदासीनता से आहत प्रेत संततियों का अहित करने में प्रवृत्त होते हैं; उनके खून के प्यासे हो जाते हैं । अत: मनुष्य को नियत समय पर पितृ-कर्म संपादित तो उनको निमित्त ब्राह्मणभोजन, कुमारीभोजन, दान आदि करवाना चाहिए। इससे पितरों को शांति मिलती है ।
शास्त्रसम्मत विधि से पितृकर्मों का संपादन जिस प्रकार पितरों को संतुष्ट कर उनके कोप को क्षीण करता है उसी प्रकार देवताओं के निमित विहित उपासना-कर्म का अनुष्ठान उन्हें पुष्ट करता है । प्रत्येक कुल, स्थान, ग्राम, राष्ट्र आदि के अलग-अलग देवता होते हैं जिनकी उपासना भिन्न-भिन्न वणों के मनुष्य अपने-अपने आचार-परंपरा के अनुसार करते हैं । मनुष्यों की इन उपासनाओं को ग्रहण कर ये देव शक्तिशाली बनते हैं और अपने उपासकों की विविध प्रकार से रक्षा करते हैं । ये अपने उपासक को वरदान देने की सामथ्र्य रखते हैं, उपासकों की सूक्ष्मजगत के उत्पातों से रक्षा करने की सामथ्र्य रखते हैं । जिनके कुल के देवताओं की नित्य पूजा-उपासना की जाती है; कौलिक उत्सवों पर विशेष प्रकार के