की प्रेरणा की उपस्थिति है ।
जब साधक योगदृष्टि से युक्त होता है तो अनुभव करता है कि पतनकारी प्रेत अपना कार्य साधने के लिए एक ही साथ मन एवं प्राण में क्रियाशील हो जाते हैं । जब काम वासना को चित्त में जगाना रहता है तो कुछ प्रेत साधक के मन में काम की प्रेरणा करते हैं एवं उसी समय कुछ प्रेत लिंग को उत्तेजित करने हेतु प्राण में क्रियाशील हो जाते हैं। जब मन की शुद्ध वृत्ति को कारण वासना वृत्ति को किंचित भी मानसिक सहमति नहीं मिलती है तब प्राण में विकार उत्पन्न करने के लिए प्रेतों का समूह प्रकट होकर हरसंभव प्रयास करता है । कई कामी प्रेत लिंग को चूसते रहते हैं, कई उसे प्रत्यक्षत: स्पशादि के द्वारा उत्तेजित करने का प्रयास करते है । साधक के जाग्रत अर्द्धचेतन या अचेतन अवस्था में प्राणिक उत्तेजना को अधिक कर प्रेत यन-केन-प्रकारेण वीर्यपात करने का उद्यम करता है । कभी-कभी सामान्य युवक-युवतियाँ भी स्वप्न में या जाग्रत अवस्था में सूक्ष्म स्त्री-पुरुष को अपने साथ बराबर ही सोते हुए अनुभव करते हैं एवं अचेतन रूप से ओज शक्ति की हानि करते हैं। ऐसे अनुभव में प्राय: प्रेतों का ही प्रभाव दिखाई पड़ता है । पूर्वजन्म या सद्य:बीते हुए जन्म के आधार पर आसक्त प्रेत मनुष्य को वासनालिप्त करने के लिए उसके साथ परछाई के समान मैंडराते रहते हैं। यदि मनुष्य सचेष्ट हो इन पिशाचनत्माओं का प्रतिकार ना करे, मन-कर्म-वचन से ब्रह्मचर्य का पालन कर बाहरी एवं आन्तरिक शुद्धि का पालन ना करे तो वह गंभीर संकट में फंस जाता है । यदि सूक्ष्म रूप से काम-क्रिया में संलग्न करने वाली पैशाचिक शक्ति किसी मनुष्य के गति में आश्रय ले लेती है तो उसकी प्राण-शक्ति का ही शोषण करती है । उसके वीर्य में मौजूद ओज, तेज, बल का अपहरण कर वह उसे अन्ततोगत्वा अपने लोक अस्वस्थ हो जाते हैं। हस्तमैथुन, गुदाकामादि पाप कर्म में लिप्त रहनेवाले किशोर हों या असंयमी गृहस्थ- अत्यधिक वीर्य शक्ति की हानि से वे अपने उस सुरक्षा चक्र को कमजोर करते हैं जिसका रक्षाकारी कवच उन्हें प्रेतबाधा से बचाता है । प्रत्येक मनुष्य का शरीर एक दिव्य सुरक्षा घेरा से